तेरे नूर की रूहानियत बस इतनी थी, की मैं अपना ताबीर भूल बैठा, लेकिन तुझे लिहाज़ न था ज़िन्दगी का, जो मेरी इन नवाज़िशों का लहज़ा भी भूल बैठा, फिर भी एक अमल है आज भी, की एक दिन आएगा जरूर, की तेरा आफताब उन्स भर खिलेगा जरूर, बद्दस्तूर सी थी ज़िन्दगी मेरी, की इनायत भर गई थी मोहब्बत तेरी, सुकून भी नसीब न हुआ, तेरी जुस्तजू में खुद को खोकर, इसलिए बस एक अमल है आज भी, की एक दिन ऐसा आएगा जरूर की तेरा आफताब उन्स भर खिलेगा जरूर, रफ्तार रही है जनाजो कि, तेरे हर हर्फ़ में बयान होने की, मैं तो पासबान था तेरे उस ख्वाब का, की वो आबशार भी मुंतज़िर न हुआ, ओर में तेरी काशिद हो गया, और बस एक अमल भर रह गया, की एक दिन ऐसा आएगा जरूर, की तेरा आफताब उन्स भर खिलेगा जरूर, इज़तीरार दिखने की रिवायत थी शायद तेरी आंखों की, जो मुक्तलिफ़ था तू भी मेरे रक़्स से, उसके वस्ल से कोई वाबस्ता नही मेरा, जो उसके वस्ल को मुसलसल कर रहा हूँ, बस एक अमल के कारण, की एक दिन ऐसा आएगा जरूर, की तेरा आफताब उन्स भर खिलेगा जरूर, कितनी शिद्दत से तुझे क़ुरबत में पाया था, की मौतज़ा हो चली थी वो आफरीन, उसकी नज़ाकत में भी वो हया थी, की मैं क़तरा भर रंजिश में भी हलाल हो गया, आज भी लगता है कि ऐसा क्यों मलाल हो गया, लेकिन एक अमल है आज भी, की एक दिन ऐसा आएगा जरूर, की तेरा आफताब उन्स भर खिलेगा जरूर.