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Motivational indar jeet group
कक्षा 10 वी - 12 वी के परीक्षा परिणाम आ चुके हैं । अनुतीर्ण हुए बालक - बालीकाएंं हताश न हो , आप साल हारे हैं जीवन नहीं । उठो , हुई गलतीयों को दोहराओ मत असफलता में ही सफलता छुपी हुई है । होंसला बुलंद रखो अपने प्रयास को ओर समय दें अपना ध्यान केन्द्रित रखें , निश्चित है आप सफल होगें मेरी शुभकामनाएं आपके साथ है । उत्तीर्ण परीक्षार्थीयों को बहुत बहुत बधाईयां आप आगे भी अपनी मेहनत जारी रखें , आपके उज्जवल भविष्य की कामनाएं करता हूँ मेरी शुभकामनाएं आपके साथ है । ©Motivational indar jeet guru #कक्षा 10 वी - 12 वी के परीक्षा परिणाम आ चुके हैं । अनुतीर्ण हुए बालक - बालीकाएंं हताश न हो , आप साल हारे हैं जीवन नहीं । उठो , हुई गलतीयों को दोहराओ मत असफलता में ही सफलता छुपी हुई है । होंसला बुलंद रखो अपने प्रयास को ओर समय दें अपना ध्यान केन्द्रित रखें , निश्चित है आप सफल होगें मेरी शुभकामनाएं आपके साथ है । उत्तीर्ण परीक्षार्थीयों को बहुत बहुत बधाईयां आप आगे भी अपनी मेहनत जारी रखें , आपके उज्जवल भविष्य की कामनाएं करता हूँ मेरी शुभकामनाएं आपके साथ है ।
Balwant Mehta
तुम्हें निगाहों की भाषा मालूम हो तो बताओ कहां लगती है इसकी कक्षा जानने की है बड़ी जिज्ञासा। ©Balwant Mehta #Beautiful_Eyes #निगाहें #जिज्ञासा #कक्षा
Anamika
पुरानी अल्बम ब्यालीस(४२) की उम्र ... चौबीस (२४) की मस्ती, और दूसरी (२) कक्षा की वो बेंच अचानक से फिर याद आ गई.. सच में यें यादें बड़ी निकम्मी हैं बिन दरवाजा खटखटाये आ जाती हैं.. #पुरानीअल्बम #उम्र #कक्षा #यादें #tulikagarg
Naresh K Chouhan
दोस्तों के संग कोई ट्रिप वैसे दोस्तों के संग तो बहुत सी ट्रिप है पर हमेशा रोंगटे खड़े करने वाली तो एक ही है जब हम 10-12 मित्र पहाड़ी छेत्र में घूम रहे थे तभी अचानक गुफा में बब्बर शेर ने हमको देखा और हमारे पीछे लग गया फिर हमने वहा सूखे 20 फिट गहरे झरने में कूदकर जान बचाई वो दिन कभी नहीं भूल सकते। #कक्षा 8 कि घटना
B.L Parihar
*हम उस जमाने के बच्चे थे* पांचवी तक घर से तख्ती लेकर स्कूल गए थे... स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी, कक्षा के तनाव में भाटा पेन्सिल खाकर ही हमनें तनाव मिटाया था। स्कूल में टाट-पट्टी की अनुपलब्धता में घर से खाद या बोरी का कट्टा बैठने के लिए बगल में दबा कर भी साथ ले जाते थे। कक्षा छः में पहली दफा हमने अंग्रेजी का कायदा पढ़ा और पहली बार एबीसीडी देखी। स्मॉल लेटर में बढ़िया एफ बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था। करसीव राइटिंग भी कॉलेज मे जाकर ही सीख पाए। उस जमाने के हम बच्चों की अपनी एक अलहदा दुनिया थी, कपड़े के थेले में किताब और कापियां जमाने का विन्यास हमारा अधिकतम रचनात्मक कौशल था। तख्ती पोतने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते (नई काॅपी-किताबें मिलती) तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का स्थाई उत्सव था। सफेद शर्ट और खाकी पेंट में जब हम माध्यमिक कक्षा पहूँचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास तो हुआ लेकिन पेंट पहन कर हम शर्मा रहे थे, मन कर रहा था कि वापस निकर पहन लें। पांच छ: किलोमीटर दूर साईकिल से रोज़ सुबह कतार बना कर चलना और साईकिल की रेस लगाना हमारे जीवन की अधिकतम प्रतिस्पर्धा थी। हर तीसरे दिन पम्प को बड़ी युक्ति से दोनों टांगो के मध्य फंसाकर साईकिल में हवा भरते मगर फिर भी खुद की पेंट को हम काली होने से बचा न पाते थे। स्कूल में पिटते, कान पकड़ कर मुर्गा बनते, मगर हमारा ईगो हमें कभी परेशान न करता.. हम उस जमाने के बच्चें शायद तब तक जानते नही थे कि *ईगो* होता क्या है? क्लास की पिटाई का रंज अगले घंटे तक काफूर हो गया होता,और हम अपनी पूरी खिलदण्डता से हंसते पाए जाते। रोज़ सुबह प्रार्थना के समय पीटी के दौरान एक हाथ फांसला लेना होता, मगर फिर भी धक्का मुक्की में अड़ते भिड़ते सावधान विश्राम करते रहते। हम उस जमाने के बच्चे सपने देखने का सलीका नही सीख पाते, अपने माँ बाप को ये कभी नही बता पाते कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं, क्योंकि "आई लव यू माॅम-डेडी" नहीं आता था. हम उस जमाने से निकले बच्चे गिरते सम्भलते लड़ते-भिड़ते दुनिया का हिस्सा बने है। कुछ मंजिल पा गए हैं, कुछ यूं ही खो गए हैं। पढ़ाई, फिर नौकरी के सिलसिले में लाख शहर में रहे लेकिन जमीनी हकीकत जीवनपर्यन्त हमारा पीछा करती रहती रही है। अपने कपड़ों को सिलवट से बचाए रखना और रिश्तों को अनौपचारिकता से बचाए रखना हमें आज भी नहीं आता है। अपने अपने हिस्से का निर्वासन झेलते हम बुनते है कुछ आधे अधूरे से ख़्वाब और फिर जिद की हद तक उन्हें पूरा करने का जुटा लाते है आत्मविश्वास। कितने भी बड़े क्यूँ ना हो जायें हम आज भी दोहरा चरित्र नही जी पाते हैं, जैसे बाहर दिखते हैं, वैसे ही अन्दर से होते हैं। *"हम थोड़े अलग नहीं, पूरे अलग होते हैं. "* *कह नहीं सकते हम बुरे थे या अच्छे थे,* *"क्योंकि हम उस जमाने के बच्चे थे."* #Bachpan hmara
Swastika Shree
एब्सेंट थे आज अध्यापक जी, सब बन गए थे मनमौजी, कक्षा में मचा हुआ था हरदंग, हीरो छात्रों की टोली, जमीन की खिड़की दरवाजों के पास, आते जाते छात्रों पर, कर रहे थे कमेंट पास, किसी के हाथ में थी किताब, कोई कर रहा था अध्यापक का इंतजार, अनेक छात्र उलझे थे बातों में, कहीं चल रहा था प्रीतिभोज, कोई दिखा रहा था ऋतिक सा पोज, अचानक अध्यापक कक्षा में पधारे, उड़ा दिए प्राण पखेरू हमारे, अपने नरम नरम हाथों से, दिल ने दिखा दिया हमको तारे, अचानक आंख खुल गई, बात समझ आ गई, या तो सपना था!! फ्री पीरियड ☺️
Jay Krishan Kumar
हिंदी दिवस सीखा था मैंने अपने जज्बातों को स्वरूप देना , सीखा था मैंने अपने ख्वाब को प्रदर्शित करना , और सीखा था मैंने माँ को माँ कहना , जब मैं हिन्दी की कक्षा में गया था । माँ के लालन पालन सी थी इसकी प्रकृति , ज्यों घुलने लगी थी हमारे जिस्म में बनकर घुट्टी , फिर सीखा मैंने इसकी मधुरता को , और सीखा कैसे दूसरे भाषाओं से भी है इसकी दोस्ती । सीखा था हमने सबको साथ जोड़ आगे बढ़ना , औरों की मदद कर खुद को निखारना , और सीखा हमने सुग्राह्यता की परिसीमा को , जब मैं हिन्दी की कक्षा में गया था ॥
kavirA
हिंदी दिवस ये उन दिनों कि बात हैं ज़ब हम कक्षा 5 कि हिंदी विषय पड़ रहे थे, पता नहीं क्या बात थी मेरी हिंदी वाली मैडम मे, उम्र थी 9 कि फिर भी धीरे धीरे आंख लड़ रहे थे! 😍😍😍😍 #मेरी बचपन वाली class #कक्षा 5...
Diwan G
हिंदी दिवस पृथ्वी की कक्षा,चंद्रमा की कक्षा मुझसे दूर थी, हर शब्द,हर अर्थ मैंने हिंदी की कक्षा में सीखा। सिर्फ शायरी ही ऐसी है,जो मैंने वहाँ न सीखी, शायरी लिखना मैंने,प्यार की कक्षा में सीखा।। FantasyWriter _Diwan G_ पहली कक्षा #कक्षा #हिंदी #प्यार #अर्थ #nojoto
Apna Hisar Vicky Yar
*!!हम उस जमाने के बच्चे थे!!* पांचवी तक घर से तख्ती लेकर स्कूल गए थे... स्लेट को जीभ से चाटकर अक्षर मिटाने की हमारी स्थाई आदत थी, कक्षा के तनाव में भाटा पेन्सिल खाकर ही हमनें तनाव मिटाया था। स्कूल में टाट-पट्टी की अनुपलब्धता में घर से खाद या बोरी का कट्टा बैठने के लिए बगल में दबा कर भी साथ ले जातें थे। कक्षा छः में पहली दफा हमनें अंग्रेजी का कायदा पढ़ा और पहली बार एबीसीडी देखी स्मॉल लेटर में बढ़िया एफ बनाना हमें बारहवीं तक भी न आया था। करसीव राइटिंग भी कॉलेज मे जाकर ही सीख पाए। उस जमाने के हम बच्चों की अपनी एक अलहदा दुनिया थी, कपड़े के थेले में किताब और कापियां जमाने का विन्यास हमारा अधिकतम रचनात्मक कौशल था। तख्ती पोतने की तन्मयता हमारी एक किस्म की साधना ही थी। हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते (नई काॅपी-किताबें मिलती) तब उन पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का स्थाई उत्सव था। सफेद शर्ट और खाकी पेंट में जब हम माध्यमिक कक्षा पहूँचे तो पहली दफा खुद के कुछ बड़े होने का अहसास तो हुआ लेकिन पेंट पहन कर हम शर्मा रहे थे, मन कर रहा था कि वापस निकर पहन लें। पांच छ: किलोमीटर दूर साईकिल से रोज़ सुबह कतार बना कर चलना और साईकिल की रेस लगाना हमारे जीवन की अधिकतम प्रतिस्पर्धा थी। हर तीसरे दिन पम्प को बड़ी युक्ति से दोनों टांगो के मध्य फंसाकर साईकिल में हवा भरतें मगर फिर भी खुद की पेंट को हम काली होने से बचा न पाते थे। स्कूल में पिटते, कान पकड़ कर मुर्गा बनतें मगर हमारा ईगो हमें कभी परेशान न करता.. हम उस जमाने के बच्चें शायद तब तक जानते नही थे कि *ईगो* होता क्या है। क्लास की पिटाई का रंज अगले घंटे तक काफूर हो गया होता, और हम अपनी पूरी खिलदण्डता से हंसते पाए जाते। रोज़ सुबह प्रार्थना के समय पीटी के दौरान एक हाथ फांसला लेना होता, मगर फिर भी धक्का मुक्की में अड़ते भिड़ते सावधान विश्राम करते रहते। हम उस जमाने के बच्चें सपनें देखने का सलीका नही सीख पाते, अपनें माँ बाप को ये कभी नही बता पातें कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं, क्योंकि "आई लव यू माॅम-डेडी" नहीं आता था. हम उस जमाने से निकले बच्चें गिरतें सम्भलतें लड़ते भिड़ते दुनियां का हिस्सा बने हैं। कुछ मंजिल पा गए हैं, कुछ यूं ही खो गए हैं। पढ़ाई फिर नौकरी के सिलसिलें में लाख शहर में रहें लेकिन जमीनी हकीकत जीवनपर्यन्त हमारा पीछा करती रहती रही है. अपने कपड़ों को सिलवट से बचाए रखना और रिश्तों को अनौपचारिकता से बचाए रखना हमें नहीं आता है। अपने अपने हिस्से का निर्वासन झेलते हम बुनते है कुछ आधे अधूरे से ख़्वाब और फिर जिद की हद तक उन्हें पूरा करने का जुटा लाते है आत्मविश्वास। कितने भी बड़े क्यूँ ना हो जायें हम आज भी दोहरा चरित्र नही जी पाते हैं, जैसे बाहर दिखते हैं, वैसे हीं अन्दर से होते हैं। *"हम थोड़े अलग नहीं, पूरे अलग होते हैं. "* *कह नहीं सकते हम बुरे थे या अच्छे थे,* *"क्योंकि हम उस जमाने के बच्चे थे."*