Nojoto: Largest Storytelling Platform

ये तस्वीरें बेहद ख़ास इसलिए भी हैं क्योंकि इनमें

  ये तस्वीरें बेहद ख़ास इसलिए भी हैं क्योंकि इनमें सिर्फ उसका ही नहीं मेरा बचपन भी सांस ले रहा है ... वो बचपन जब हर बात पर बड़ी आसानी से विश्वास हो जाता था ... इस बात पर भी कि ये जो चेहरे रोज हमारे मोहल्ले से निकलते हैं ये सच्ची - मुच्ची वाले भगवान ही हैं। ये हमें सब कुछ दिला सकते हैं और हर मुश्किल से बचा सकते हैं , इसलिए हम बच्चे हाथ जोड़कर , सर झुकाकर उन दिनों ना जाने क्या - क्या इन्हीं के सामने माँग लेते ... वो खिलौना जो मेले में पसंद आया हो लेकिन मुट्ठी में उतने पैसे ही ना हो  , वो दोस्ती जो पिछली शाम दोस्त से लड़ाई करके टूट गयी हो , वो ड्रेस जो किसी दुकान पर टँगी देखी हो , वो गुल्लक जो कई दिनों से सिक्के डालने के बाद भी भरी ना हो , वो ग्रह कार्य ( होम वर्क ) जो पूरा करना भूल गए हैं ...और ना जाने क्या - क्या ...😊 तब सारी शिकायतें सारी फरमाइशें 10 - 12 दिन तक इन्हीं से होतीं थी और विश्वास बढ़ता भी , तब - जब पापा रात घर आते हुए वो खिलौना हाथ में ले आते , या दूसरे दिन वो रूठे हुये दोस्त के पास आकर बैठ जाता और बस भर मुस्कुरा देता ... क्योंकि " सॉरी " जैसा कोई शब्द मेरे वाले बचपन में आया ही नहीं था ... 
बहुत भोला - भाला सा था वो बचपन जब मेरी आँखें इन चेहरों के पीछे मौहल्ले या आसपास के लड़के नहीं ,साक्षात भगवान देखता था  ...

आज वृत्तांत की आंखें भी उनमें उसके भाँनजी (भगवान ) ही देख रही थीं ... और मेरी तुच्छ आँखें उनमे " इंसान " । कितना कुछ मर चुका है मेरे अंदर ... उसका बचपन हर रोज़ एहसास कराता है ... 

PS - कृपया इसमें लिखे शब्दों के एक बचपन मन की बातें समझकर पढ़िए ... किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचेगी :)

जसवंतनगर#मेला #रामलीला #बचपन #यादें
  ये तस्वीरें बेहद ख़ास इसलिए भी हैं क्योंकि इनमें सिर्फ उसका ही नहीं मेरा बचपन भी सांस ले रहा है ... वो बचपन जब हर बात पर बड़ी आसानी से विश्वास हो जाता था ... इस बात पर भी कि ये जो चेहरे रोज हमारे मोहल्ले से निकलते हैं ये सच्ची - मुच्ची वाले भगवान ही हैं। ये हमें सब कुछ दिला सकते हैं और हर मुश्किल से बचा सकते हैं , इसलिए हम बच्चे हाथ जोड़कर , सर झुकाकर उन दिनों ना जाने क्या - क्या इन्हीं के सामने माँग लेते ... वो खिलौना जो मेले में पसंद आया हो लेकिन मुट्ठी में उतने पैसे ही ना हो  , वो दोस्ती जो पिछली शाम दोस्त से लड़ाई करके टूट गयी हो , वो ड्रेस जो किसी दुकान पर टँगी देखी हो , वो गुल्लक जो कई दिनों से सिक्के डालने के बाद भी भरी ना हो , वो ग्रह कार्य ( होम वर्क ) जो पूरा करना भूल गए हैं ...और ना जाने क्या - क्या ...😊 तब सारी शिकायतें सारी फरमाइशें 10 - 12 दिन तक इन्हीं से होतीं थी और विश्वास बढ़ता भी , तब - जब पापा रात घर आते हुए वो खिलौना हाथ में ले आते , या दूसरे दिन वो रूठे हुये दोस्त के पास आकर बैठ जाता और बस भर मुस्कुरा देता ... क्योंकि " सॉरी " जैसा कोई शब्द मेरे वाले बचपन में आया ही नहीं था ... 
बहुत भोला - भाला सा था वो बचपन जब मेरी आँखें इन चेहरों के पीछे मौहल्ले या आसपास के लड़के नहीं ,साक्षात भगवान देखता था  ...

आज वृत्तांत की आंखें भी उनमें उसके भाँनजी (भगवान ) ही देख रही थीं ... और मेरी तुच्छ आँखें उनमे " इंसान " । कितना कुछ मर चुका है मेरे अंदर ... उसका बचपन हर रोज़ एहसास कराता है ... 

PS - कृपया इसमें लिखे शब्दों के एक बचपन मन की बातें समझकर पढ़िए ... किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचेगी :)

जसवंतनगर#मेला #रामलीला #बचपन #यादें

ये तस्वीरें बेहद ख़ास इसलिए भी हैं क्योंकि इनमें सिर्फ उसका ही नहीं मेरा बचपन भी सांस ले रहा है ... वो बचपन जब हर बात पर बड़ी आसानी से विश्वास हो जाता था ... इस बात पर भी कि ये जो चेहरे रोज हमारे मोहल्ले से निकलते हैं ये सच्ची - मुच्ची वाले भगवान ही हैं। ये हमें सब कुछ दिला सकते हैं और हर मुश्किल से बचा सकते हैं , इसलिए हम बच्चे हाथ जोड़कर , सर झुकाकर उन दिनों ना जाने क्या - क्या इन्हीं के सामने माँग लेते ... वो खिलौना जो मेले में पसंद आया हो लेकिन मुट्ठी में उतने पैसे ही ना हो , वो दोस्ती जो पिछली शाम दोस्त से लड़ाई करके टूट गयी हो , वो ड्रेस जो किसी दुकान पर टँगी देखी हो , वो गुल्लक जो कई दिनों से सिक्के डालने के बाद भी भरी ना हो , वो ग्रह कार्य ( होम वर्क ) जो पूरा करना भूल गए हैं ...और ना जाने क्या - क्या ...😊 तब सारी शिकायतें सारी फरमाइशें 10 - 12 दिन तक इन्हीं से होतीं थी और विश्वास बढ़ता भी , तब - जब पापा रात घर आते हुए वो खिलौना हाथ में ले आते , या दूसरे दिन वो रूठे हुये दोस्त के पास आकर बैठ जाता और बस भर मुस्कुरा देता ... क्योंकि " सॉरी " जैसा कोई शब्द मेरे वाले बचपन में आया ही नहीं था ... बहुत भोला - भाला सा था वो बचपन जब मेरी आँखें इन चेहरों के पीछे मौहल्ले या आसपास के लड़के नहीं ,साक्षात भगवान देखता था ... आज वृत्तांत की आंखें भी उनमें उसके भाँनजी (भगवान ) ही देख रही थीं ... और मेरी तुच्छ आँखें उनमे " इंसान " । कितना कुछ मर चुका है मेरे अंदर ... उसका बचपन हर रोज़ एहसास कराता है ... PS - कृपया इसमें लिखे शब्दों के एक बचपन मन की बातें समझकर पढ़िए ... किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचेगी :) जसवंतनगरमेला #रामलीला #बचपन #यादें