Alone "कहां गयी रे मानव तेरी पहचान?" सडकें वीरान गलियां सुनसान। घर की छतों पर पंछी अंजान॥ कहाँ गयी रे मानव तेरी पहचान? अमीरी गरीबी से तेरा गहरा नाता। इंसानियत का फर्ज तू कभी नहीं निभाता, क्या इतना ही तू ह्रदयवान? कहाँ गयी रे मानव तेरी पहचान? भेदभाव तो रंगों का है। पर कभी किसी के रंग से, उसकी अच्छाई का पता चला है॥ क्या इतना ही तू गुणवान? कहाँ गयी रे मानव तेरी पहचान? ऊंची - ऊंची बातें करना। शानो शौकत से जिंदगी जीना॥ क्या यही तेरा अभिमान? कहाँ गयी रे मानव तेरी पहचान? पत्त्थर पर दूध चढाता भूखे को घर से भागाता। क्या यहीं तेरे संस्कार? कहाँ गयी रे मानव तेरी पहचान? खुली हवा में रहना तुझे है भाता। फिर पंछी को क्यों कैद कराता ॥ क्या इतना ही तू नादान ? कहाँ गयी रे मानव तेरी पहचान? सब कुछ होते हुए खुद को खाली बताता। एक दिन तेरे झूठ का पन्ना किताब में सवर जाता।॥ क्या यहीं तेरा सम्मान ? Prachi tyagi.... #poem #now people condition #positivity