वो कागज़ पर उतर आते है लफ्ज़ बनकर मैं लिख जाता हूँ उनको मजनूँ बनकर साथ चलने को राज़ी थे घर मेरे किस बात ने रोका है अब उन्हें कदमों की धड़कन सुन लू ज़रा क्यों रुके है वहीं, पूछें ज़रा क्या करना है रख कर ये दुनिया वालो फूल ये बाग के कब तक खिलेंगे मोहब्बत के वायदे, टूटते है अक्सर खूं के रिश्तों के आगे बिखरते है अक्सर इन गलियों से निकलता रहता हूँ मैं नज्मों की फेरी लगता हूँ मैं तुझे देखा था इक दिन चोखट पर खड़ी थी एक चिट्ठी तेरे हाथों में पड़ी थी ऐसा हुवा है हम में कभी मनाया हुवा हो मुझको कभी इस रिश्ते में सिर्फ मैं तो नहीं फिर मौसम क्यों लगते है जानशीं (वारिस) ये लिखना मेरा कोई पढ़ता नहीं दर्द है इसमें कोई समझता नहीं मैं इतज़ार में रहता हूँ अक्सर तेरे और मिरे दिल से भी तो तू उतरती नहीं लफ्ज़, रातें और ये सुबह सब तेरी तो है मेरी दिल की दिवार पर तस्वीर तेरी तो है ये मेरी ज़मी और मैं उसकी तलाश में निकला हूँ कड़ी धूप में उस सेहरा पर नंगे पाँव हूँ वो वसीयत में मिली है मुझे उदास बारिश सब तेरी तो है ... ©Anurag ILahi #Udasi