#मेंहरब़ा हम पे हर एक #रात हुआ करती हैं
#आँख लगते ही उनसे #मुलाकात हुआ करती हैं
#ख़्वाबों में तों वों #रोज़ मिला करतें हैं
मगर #हक़ीक़त में मिलते क्यूँ नहीं
#हिज्र - ए - #ग़म की ये #जुदाई है कैसी
कि मेरे दिन और रात ,, अब काटे कटतें क्यूँ नहीं
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