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खामोशी अक्सर ही खामोशी इ

खामोशी
                         
अक्सर ही खामोशी इख्तियार कर लेता हूं मैं
जब दुनियां मेरे दर्द की जुबां नही समझती है
जब मेरी कच्ची झोपड़ी तृष्णा की आग नही सह पाती है
जब जिल्लत का घूट मेरे दिल को मार देता है

खामोशी जो शायद मुझे थोड़ा सा सुकून दिल सके
जो मेरे अंदर बहते झरने की सुकून भरी आवाज सुना सके
जो मुझे के अकेलेपन में सुला कर मेरे अंदर दिखा सके
जो मेरे अंदर महकते गुलों को थोड़ा सा और महका सके

खामोशी जो मुझे जीने की थोड़ी उम्मीद दिला सके
जो मुझे हर कदम पर मुश्किलो से लड़ने का साथ दे सके
जो मुझे एक दिन मैं ही सारी जिंदगी सुकून से जिला सके
जो मुझे मेरे अंदर की इंसानियत को मुझे दिखा सके

खामोशी से खुद को समझकर, सुकून पाकर, गुल बनकर
खुद को समझकर दुनिया में इंसानियत से जीना सीखकर
बस तरह की खुशी से भरी जिंदगी को पाने के लिए मैं
अक्सर ही खामोशी इख्तियार कर लेता हूं मैं

©Sahib khan صاحب خان 
  meri khamosi

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