बस इक झिझक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में कि तेरा ज़िक्र भी आयेगा इस फ़साने में। बरस पड़ी थी जो रुख़ से नक़ाब उठाने में वो चाँदनी है अभी तक मेरे ग़रीब-ख़ाने में। इसी में इश्क़ की क़िस्मत बदल भी सकती थी जो वक़्त बीत गया मुझ को आज़माने में। ये कह के टूट पड़ा शाख़-ए-गुल से आख़िरी फूल अब और देर है कितनी बहार आने में। बस इक झिझक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में कि तेरा ज़िक्र भी आयेगा इस फ़साने में। बरस पड़ी थी जो रुख़ से नक़ाब उठाने में वो चाँदनी है अभी तक मेरे ग़रीब-ख़ाने में। इसी में इश्क़ की क़िस्मत बदल भी सकती थी जो वक़्त बीत गया मुझ को आज़माने में।