बस हाथ मलता रह गया। अपने निशां बनाने तो थे, भीड़ के साथ चलता रह गया। बीता पल लौट आया नही, मैं बस हाथ मलता रह गया। सायों के पीछे भागता, हकीकत कहीं था छोड़ आया, अपनी धुन में मस्त, कोई बुज़ुर्ग बात कहता रह गया। खुदा खुद को ही समझे बैठा, खुद से ही अनजान था, दर्द औरों का बाँटा था कब, बस नाथ बनता रह गया। कुछ रौशनी की दरकार थी, घर औरों का जला दिया, ये सुबह आयी ना कभी, बन बस रात छलता रह गया। बिसात ऐसी थी बिछी, अहं का समंदर गहरा बड़ा, जीत की थी लालसा, मगर बस मात बनता रह गया। मज़हबी तलवार ले हाथ, हर जंग में था कूदा पड़ा, अदद इंसां बन पाया नही, बस जात बनता रह गया। ©रजनीश "स्वछंद" बस हाथ मलता रह गया। अपने निशां बनाने तो थे, भीड़ के साथ चलता रह गया। बीता पल लौट आया नही, मैं बस हाथ मलता रह गया। सायों के पीछे भागता, हकीकत कहीं था छोड़ आया, अपनी धुन में मस्त, कोई बुज़ुर्ग बात कहता रह गया।