चोरी
वो फ़र्श पर बेसुध पड़ी थी, सर्दियों में ठण्डे फ़र्श पर यूँ लेट जाने में एक अजीब सी ख़ुशी मिलती थी उसे, दुपट्टा कब उसके गले से फ़िसल गया उसे पता ही नहीं चला। मैं वहीं दरवाज़े पर खड़ा था जब उसका दुपट्टा मेरे क़दमों में आया, एक बार सोचा कि बता दूँ उसे की मैं यहीं हूँ लेकिन फ़िर सोचा नहीं, वो इस पल को जी रही थी खोई थी, तभी तो दुपट्टे के यूँ फ़िसल जाने का भी एहसास नहीं हुआ उसे या शायद उसने चाहा ही नहीं एहसास करना। वो इस कमरे की चार दीवारों में आज़ाद महसूस कर रही थी शायद, हर लिहाज़ को वो इस कमरे के बाहर छोड़ कर आई थी, अपने पैरों को आधा खोले आधा बन्द किये तो कभी यूँ ही पैरों को फैला लेना जैसे कोई लाश पड़ी हो, जिसे शर्म और लिहाज़ का वो झूठा साफ़ा पहनने की अब कोई ज़रूरत नहीं है जो उसे ज़बरदस्ती परम्पराओं का हवाला देकर थोपा गया है। उसने करवट ली..दाएँ फिर बाएं मैं वहीं खड़ा था। मुझे देखते ही वो ऐसे घबरा कर उठी जैसे मैंने उसकी कोई चोरी पकड़ ली हो, हाँ.... चोरी ही तो की थी उसने, अपनी ही ज़िन्दगी से अपने लिए कुछ पल चुरा लिए थे उसने....