ख्वाबों की मियाद बढ़ानी है।। मैं चुनता गया, मैं बुनता गया, ख्वाबों के तिनके, आशियाँ ख्वाबों के। मैं पूछता गया, मैं सुनता गया, सवाल अधूरे, मतलब उनके जवाबों के। कुछ तो मयस्सर हो न सका, हर राह वहीं जा पहुंची, जहां से चले थे। घरौंदा ख्वाबों का अज़ीज़ बड़ा, फिर से लगे पलने वहीं, जहां वे पले थे। ग़म का था बाजार गरम, खुशियां थीं महंगी, थी औकात नहीं। जीवन के पन्ने पलट देखा, जो था वही था, थी कोई सौगात नहीं। अरमां गर्म तवे पे सिंकती है, जो जाना जो समझा, था वैसा कुछ भी नहीं। हर मोड़ पे राहें बदलती गयीं, मंज़िल का निशां, था वहां सचमुच ही नहीं। बन बंजारा रहा भटकता, ना चैन-ओ-सुकूं, ना आराम कहीं। पहर पहर में फर्क था मुश्किल, थी सुबह कहीं, थी बीती शाम कहीं। अब तक हारा, शांत पड़ा, जो पक्की ख्वाबों की बुनियाद बनानी है। वक़्त का पहिया चलता जाता, अब फिर ख्वाबों की मियाद बढ़ानी है।। रजनीश "स्वच्छंद" ख्वाबों की मियाद बढ़ानी है।। मैं चुनता गया, मैं बुनता गया, ख्वाबों के तिनके, आशियाँ ख्वाबों के। मैं पूछता गया, मैं सुनता गया, सवाल अधूरे, मतलब उनके जवाबों के। कुछ तो मयस्सर हो न सका,