हर रोज़ बेच कर आता हूं अपने सपनो को, मानो खुद का ही दलाल बन गया हूं।। वो हर कहानी जो लिखी थी मैंने, मानो उनका ही गुनहगार बन गया हूं ।। अब ना सपने है, ना कोई ख़्वाहिश, मानो हर एक जज़्बे से कंगाल बन गया हूं ।। मेरी हशरत को जवानी के बोझ ने दबाया है, मानो किसी नशे का तलबगार बन गया हूं।। और अब तो लोग छू छू कर कहते है मुझे, के मैं तो जीता जागता कंकाल बन गया हूं।।