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शीर्षक - बचपन के वो निराले दिन। भीड़ है मेरे चार

शीर्षक - बचपन के वो निराले दिन। 

भीड़ है मेरे चारों ओर, पर मैं बहुत अकेला हूँ।
यारों मैं एक आदमी, इस दुनियां में अलबेला हूँ।
नयी जगह हैं नये लोग, नयी-नयी सब बातें हैं।
पर कैसे सबको समझाऊं, तन्हा तन्हा ये रातें है।
छोटी-छोटी बातों की भी, चिन्ता मुझे सताती है।
अक्सर किसी की यादें मुझको, अकारण ही रूलातीं है।
छोड़ गया जो बरसों पहले, अब भी मुझे सताता है।
कभी-कभी नैनों में मेरे, आंसू बनकर आ जाता है।
हूँ सोचता की भुला दूं उसको, पर भूल नहीं मैं पाता हूँ।
उसकी यादों में अक्सर, जाने क्यूँ उलझ जाता हूँ।
साथ गुजारे थे उसके, जो बचपन के वो प्यारे दिन।
ऊलझलूल सी बातों वालें, बचपन के वो सारे दिन।
खेल कबड्डी वाला हो या, हो गिल्ली डण्डे वाला खेल।
बचपन में मस्त चलाते थे हम, छूक-छूक करके अपनी रेल।
पर रेल उतर गयी पटरी से, वो मुझे छोड़कर चला गया।
जो मिलकर देखें थे सपनें, सबको मिट्टी मिला गया।
अब कटते नहीं जवानी के, मुझसे ये बेकारे दिन।
यादें बनकर तड़पातें है, बचपन के वो निराले दिन।
अजय कुमार द्विवेदी #अजयकुमारव्दिवेदी बचपन के वो निराले दिन।
शीर्षक - बचपन के वो निराले दिन। 

भीड़ है मेरे चारों ओर, पर मैं बहुत अकेला हूँ।
यारों मैं एक आदमी, इस दुनियां में अलबेला हूँ।
नयी जगह हैं नये लोग, नयी-नयी सब बातें हैं।
पर कैसे सबको समझाऊं, तन्हा तन्हा ये रातें है।
छोटी-छोटी बातों की भी, चिन्ता मुझे सताती है।
अक्सर किसी की यादें मुझको, अकारण ही रूलातीं है।
छोड़ गया जो बरसों पहले, अब भी मुझे सताता है।
कभी-कभी नैनों में मेरे, आंसू बनकर आ जाता है।
हूँ सोचता की भुला दूं उसको, पर भूल नहीं मैं पाता हूँ।
उसकी यादों में अक्सर, जाने क्यूँ उलझ जाता हूँ।
साथ गुजारे थे उसके, जो बचपन के वो प्यारे दिन।
ऊलझलूल सी बातों वालें, बचपन के वो सारे दिन।
खेल कबड्डी वाला हो या, हो गिल्ली डण्डे वाला खेल।
बचपन में मस्त चलाते थे हम, छूक-छूक करके अपनी रेल।
पर रेल उतर गयी पटरी से, वो मुझे छोड़कर चला गया।
जो मिलकर देखें थे सपनें, सबको मिट्टी मिला गया।
अब कटते नहीं जवानी के, मुझसे ये बेकारे दिन।
यादें बनकर तड़पातें है, बचपन के वो निराले दिन।
अजय कुमार द्विवेदी #अजयकुमारव्दिवेदी बचपन के वो निराले दिन।

#अजयकुमारव्दिवेदी बचपन के वो निराले दिन।