कश्ती थी किनरा था सफर भी हमारा था उस अंजान शहर मैं एक घर भी हमारा था मुसाफिर की तरह गुजरी ज़िन्दगी रास्तो पर न चाहते हुए भी वहाँ पर बसर भी हमारा था सौरभ श्रीवास्तव "निराला"