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अपने ही घर मे पराये हैं। छोड़ जमीं पुरखों की अपनी,

अपने ही घर मे पराये हैं।

छोड़ जमीं पुरखों की अपनी, आज यहां क्यूँ भाग मैं आया।
पेट की खातिर अपने घर को, आज लगा क्यूँ आग मैं आया।

खेत मेरे, खलिहान मेरे,
मेरा घर, दालान मेरे।
बस शब्दों में अपने लगते,
क्यूँ ख़ुद को हैं ऐसे ठगते।

छोड़ पिता माता को अकेले,
खेल क्यूँ मैने ऐसे खेले।
किस मुख उनसे बात करूं,
कैसे मैं उनको साथ रखूं।

शहर की हवा जहरीली है,
कितने परिवारों को लीली है।
कहाँ कोई अपना यहाँ है,
निर्जीवों का बस मज़मा है।

आज जो आंखें खोली हैं, इससे पहले ना क्यूँ जाग मैं आया।
पेट की खातिर अपने घर को, आज लगा क्यूँ आग मैं आया।

जो बोया था कल को मैंने,
बैठ आज वही मैं काट रहा।
ज़ख्म हरे हैं वही पुराने,
बैठ आज वही मैं चाट रहा।

किससे शिकायत जा कर आऊं,
किसके सर पे दोष मढूं।
जब रुकना था मैं रुक न सका,
अब आगे मदहोश बढूं।

कैसी तरक्की, कैसा बढ़ना,
अपनों का जो साथ नहीं है।
किस्मत के ही बल पे बैठा,
सर पे मां का हाथ नहीं है।

जिससे कल तक था चिढ़ता मैं, गा वही अब राग मैं आया।
पेट की खातिर अपने घर को, आज लगा क्यूँ आग मैं आया।

अपने भी पीछे छूट गए,
अपनेपन का आभाव रहा।
मरहम की तो कमीं नहीं,
फिर भी दिल मे घाव रहा।

किसको अपना मैं कह जाऊं,
जा किससे दिल की बात कहूँ।
पहर पहर में खुद को भुला,
अपनो की यादों में दिन रात करूँ।

लौट सकूँ मैं थोड़ा पीछे,
सूरत ऐसी है दिखती नहीं।
सबल रहा सब पा सकता मैं,
मां की ममता पर बिकती नहीं।

दिल रोता है और ज़ख्म हरे हैं, अपनों को क्यूँ त्याग मैं आया।
पेट की खातिर अपने घर को, आज लगा क्यूँ आग मैं आया।

©रजनीश "स्वछंद" अपने ही घर मे पराये हैं।

छोड़ जमीं पुरखों की अपनी, आज यहां क्यूँ भाग मैं आया।
पेट की खातिर अपने घर को, आज लगा क्यूँ आग मैं आया।

खेत मेरे, खलिहान मेरे,
मेरा घर, दालान मेरे।
बस शब्दों में अपने लगते,
अपने ही घर मे पराये हैं।

छोड़ जमीं पुरखों की अपनी, आज यहां क्यूँ भाग मैं आया।
पेट की खातिर अपने घर को, आज लगा क्यूँ आग मैं आया।

खेत मेरे, खलिहान मेरे,
मेरा घर, दालान मेरे।
बस शब्दों में अपने लगते,
क्यूँ ख़ुद को हैं ऐसे ठगते।

छोड़ पिता माता को अकेले,
खेल क्यूँ मैने ऐसे खेले।
किस मुख उनसे बात करूं,
कैसे मैं उनको साथ रखूं।

शहर की हवा जहरीली है,
कितने परिवारों को लीली है।
कहाँ कोई अपना यहाँ है,
निर्जीवों का बस मज़मा है।

आज जो आंखें खोली हैं, इससे पहले ना क्यूँ जाग मैं आया।
पेट की खातिर अपने घर को, आज लगा क्यूँ आग मैं आया।

जो बोया था कल को मैंने,
बैठ आज वही मैं काट रहा।
ज़ख्म हरे हैं वही पुराने,
बैठ आज वही मैं चाट रहा।

किससे शिकायत जा कर आऊं,
किसके सर पे दोष मढूं।
जब रुकना था मैं रुक न सका,
अब आगे मदहोश बढूं।

कैसी तरक्की, कैसा बढ़ना,
अपनों का जो साथ नहीं है।
किस्मत के ही बल पे बैठा,
सर पे मां का हाथ नहीं है।

जिससे कल तक था चिढ़ता मैं, गा वही अब राग मैं आया।
पेट की खातिर अपने घर को, आज लगा क्यूँ आग मैं आया।

अपने भी पीछे छूट गए,
अपनेपन का आभाव रहा।
मरहम की तो कमीं नहीं,
फिर भी दिल मे घाव रहा।

किसको अपना मैं कह जाऊं,
जा किससे दिल की बात कहूँ।
पहर पहर में खुद को भुला,
अपनो की यादों में दिन रात करूँ।

लौट सकूँ मैं थोड़ा पीछे,
सूरत ऐसी है दिखती नहीं।
सबल रहा सब पा सकता मैं,
मां की ममता पर बिकती नहीं।

दिल रोता है और ज़ख्म हरे हैं, अपनों को क्यूँ त्याग मैं आया।
पेट की खातिर अपने घर को, आज लगा क्यूँ आग मैं आया।

©रजनीश "स्वछंद" अपने ही घर मे पराये हैं।

छोड़ जमीं पुरखों की अपनी, आज यहां क्यूँ भाग मैं आया।
पेट की खातिर अपने घर को, आज लगा क्यूँ आग मैं आया।

खेत मेरे, खलिहान मेरे,
मेरा घर, दालान मेरे।
बस शब्दों में अपने लगते,

अपने ही घर मे पराये हैं। छोड़ जमीं पुरखों की अपनी, आज यहां क्यूँ भाग मैं आया। पेट की खातिर अपने घर को, आज लगा क्यूँ आग मैं आया। खेत मेरे, खलिहान मेरे, मेरा घर, दालान मेरे। बस शब्दों में अपने लगते, #Love #poem #hindipoetry