इक पल तू भी जीकर दिखा, अपने बनाए जहांन में। दिखा ढूँढकर, आज इंसानियत, अपने बनाए इंसान में।। हर इंसा बन बैठा देवता, अपना-अपना आसन बिछाए, जाने, कितनी ही तलवारें हैं, आज इक मयान् में।। मूंद ली आँखे, मन में उनके, जाने क्या-क्या ख्याल हैं, मूर्ख सोचे, वाह मेरे सतगुरु, बैठै मग्न ध्यान में।। नंगे बदन धूप में, भूख से, रो रहा इक बच्चा है, संत जी लगा रहें हैं भोग, अपने आलीशान मकान में।। दोड़ रहे सब पीछे-पीछे, जैसे भेड़ के पीछे भेड, आगे गुरुजी बैठे हैं अपने, इक बहुमूल्य वाहन में।। ----प्रभजीत सिंह 'परम'