हाँ, वो जनवरी का महीना था,हल्की धूप खिली थी शहर में, खुला वो बाग़ और हवा सर्द थी,लगा किसी नींद से जागी हो आप, एक स्वेटर हरी आपके साथ थी,वो अपनी पहली मुलाक़ात थी। मिलने आपसे निकला जब घर से,मन में घिरे थे सवालों के घने बादल, आपको जानने की धुन सिर-सवार थी,फ़क़त राह में रुकने न था निकला, पूरे सफर के साथ की वो बात थी,वो अपनी पहली मुलाक़ात थी। आपके सवालों पर जरूर कुछ,मेरे मन में तो आया गरूर कुछ, ताव जेब मे रह गया था हुज़ूर जो,उसे फिर फैंक दिया था निकाल के, गुस्ताख़ी चली नहीं इस गुस्ताख़ की,वो अपनी पहली मुलाक़ात थी। यूँ तो मुझे आँखें मिलाना नहीं आता,बातों पर और बातें चढ़ाना नहीं आता, बस हिम्मत की कि नज़र मिल जाये,मन हुआ कि आपका चेहरा खिल जाये, इतनी की थी कोशिश,जो मेरे हाथ थी,वो अपनी पहली मुलाक़ात थी। आपने पूछा था कि"अपना बताइये!सवालों के कटघरे में आप भी आईये" मैंने इतना कहा कि"मैं बस अच्छा हूँ!"फिर किया था मैंने वादा कि"पढा दूंगा, मेरी ज़िंदगी की जो खुली क़िताब थी,"वो अपनी पहली मुलाक़ात थी। सादगी को ढूंढती, मेरी नज़र वहाँ रुकी,जहन मे बिखर गई,वो रौशनी थी आपकी, मुश्किल हैं मेरे फ़ैसले,तब नहीं मुश्किल हुई,चल निकला फिर वो हसीन सफ़र, जिसकी ख़ुशनुमा वो शुरुआत थी,वो अपनी पहली मुलाक़ात थी। ©Rakesh Lalit वो अपनी पहली मुलाक़ात थी #standout