नमस्कार दोस्तों हाज़िर है मेरी कहानी "सफ़र बैचेन होती चिढ के साथ धूल उड़ाती हुई ज़मीन बूंदो की छुअन पाते ही शांत हो गयी थी l अब न फिज़ाओ मे रुखापन था और ना गर्मी से जलन l अब सिर्फ बौछार थी जो घने बादलो मे से होकर बिना कुछ मांगे मिट्टी मे मिल रही थी l स्टेशन की ओर जाते हुए त्रिपाठी जी की निगाह एक छज्जे के पास ठिठक गयी l वह बरसात से बचते बचाते हुए उस छज्जे की आड़ मे आ गए थे l अभी ट्रैन छूटने मे वक़्त था इसीलिए उन्हें पूरा यकीन था की वह समय रहते स्टेशन पर पहुँच जा