गजल इसलियें रखा है दिल जलाने के लियें तू भी आयेगा मगर जाने के लियें सोना चांदी की बात क्या करते हो तुम फूटी कोड़ी भी नहीं है जहर खाने के लियें इसलियें सांसों को फूंकता रहता हूँ कुछ तो चाहिए धुंए मे उड़ाने के लियें उसके कदमों मे सर ही चढ़ा आये जब और कुछ न मिला चढ़ाने के लियें क्या खुदा की इबादत जरूरी नही ऐ 'आलम' या इंसान है सिर्फ कमाने खाने के लियें मारूफ आलम गजल/शायरी