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धरती माँ कितना कुछ देती है, सब जीवों का दुःख हर ले

धरती माँ कितना कुछ देती है,
सब जीवों का दुःख हर लेती है,

बढ़ती प्रदूषण से धरती माँ बेजान हैं,
उनके उपकार का ये कैसा एहसान हैं.

सिर झुकाने की कला भी
क्या कमाल होती है?
धरती पर सिर रखते हैं और
मुकम्मल दुआ आसमान में होती है.

कुछ पेड़ हम भी लगा दे,
इस धरती को बचाने के लिए,
क्योंकि इसने पूरी जिन्दगी लगा दी
हमारा बोझ उठाने के लिए.

वो दिल प्रेम में मगन था,
जिसका एक होना जैसे ‘धरती’ और ‘गगन’ था.
धरती माँ की पीड़ा हरे, प्रदूषण कम से कम करे.

जो परों से नही, हौसलों से उड़ा करते हैं,
वो जमीन पर रहकर भी आकाश छुआ करते है.

मुट्ठी भर बीज बिखेर दो
दिलों की जमीन पर,
बारिश का मौसम आ रहा है
शायद अपनापन पनप जाए.

बिक रहा है पानी,
पवन बिक ना जाये,
बिक गई है धरती,
गगन बिक न जाये.

खुली जुल्फें, माथे पे बिंदी, आँखों में गहराई है,
तू इस धरती की है या फिर जन्नत से आई है.

देखना कभी धरती की गोद में सूरज को ठहरते हुए,
एहसास होगा, कितना थक गये जिन्दगी में चलते हुए.

©Writer L B Yadav bhumi 

#EarthDay
धरती माँ कितना कुछ देती है,
सब जीवों का दुःख हर लेती है,

बढ़ती प्रदूषण से धरती माँ बेजान हैं,
उनके उपकार का ये कैसा एहसान हैं.

सिर झुकाने की कला भी
क्या कमाल होती है?
धरती पर सिर रखते हैं और
मुकम्मल दुआ आसमान में होती है.

कुछ पेड़ हम भी लगा दे,
इस धरती को बचाने के लिए,
क्योंकि इसने पूरी जिन्दगी लगा दी
हमारा बोझ उठाने के लिए.

वो दिल प्रेम में मगन था,
जिसका एक होना जैसे ‘धरती’ और ‘गगन’ था.
धरती माँ की पीड़ा हरे, प्रदूषण कम से कम करे.

जो परों से नही, हौसलों से उड़ा करते हैं,
वो जमीन पर रहकर भी आकाश छुआ करते है.

मुट्ठी भर बीज बिखेर दो
दिलों की जमीन पर,
बारिश का मौसम आ रहा है
शायद अपनापन पनप जाए.

बिक रहा है पानी,
पवन बिक ना जाये,
बिक गई है धरती,
गगन बिक न जाये.

खुली जुल्फें, माथे पे बिंदी, आँखों में गहराई है,
तू इस धरती की है या फिर जन्नत से आई है.

देखना कभी धरती की गोद में सूरज को ठहरते हुए,
एहसास होगा, कितना थक गये जिन्दगी में चलते हुए.

©Writer L B Yadav bhumi 

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