कैसा पथिक मैं।। जागे जागे ही मैं देखो ऊंघ चला, जीवित रहा पर आंखें मूंद चला। जलस्रोत नही बस फैला पानी हूं, रस्ता अपना कहां कब ढूंढ चला। कैसी कहानी है क्या ये कहानी, सच कहते ही गला ये रुंध चला। राह दिखाने निकला था घर से, हर लौ ज्योति की मैं फूंक चला। मैं सच के साथ खड़ा कब था, फैलाये बस झूठ की धुंध चला। किसको समझाऊं क्या कह दूं, जो लिए विचार मैं कुंद चला। कब सोचा कुछ भी हटकर मैंने, बढ़ा उधर जहां ये झुंड चला। क्या हुई थी चिंता मानवजन की, बस धड़ पे लिए नरमुंड चला। क्या सार्थक, सब रहा निरर्थक, बासी जीवन का लिए फफूंद चला। बस चाहा, पर क्या कर पाया मैं, पी अपने ही लहु का घूंट चला। तुम बारिश हो, जाना बरस तुम, मैं तो बस हो पानी का बून्द चला। ©रजनीश "स्वछंद" कैसा पथिक मैं।। जागे जागे ही मैं देखो ऊंघ चला, जीवित रहा पर आंखें मूंद चला। जलस्रोत नही बस फैला पानी हूं, रस्ता अपना कहां कब ढूंढ चला।