दिन गुज़रता रहा शाम ढलती रही मेरे सांसों में धूप भी पिघलती रही शाम को मैंने कहा, दूर मेरे से ना हो मुस्कुराती रही रंग बदलती रही रेत की खुद गुज़ारिश, नकारा न मैं मेरे हाथ से खुद फिसलती रही क्या नदी को थी परवाह किनारे की बस वह तो लहरों के दम पर मचलती रही शाम सूरज की लालिमा ढली कुछ ऐसे आकर मन के नैनों में जलती रही दिन गुज़रता रहा शाम ढलती रही मेरे सांसों में धूप भी पिघलती रही शाम को मैंने कहा, दूर मेरे से ना हो मुस्कुराती रही रंग बदलती रही रेत की खुद गुज़ारिश, नकारा न मैं मेरे हाथ से खुद फिसलती रही