संकीर्ण मानसिकता की कैसी हवा है छाई देवी स्वरूपा स्त्री पर ही अंगुली जो उठाई विडंबना देखो कैसी है आज परंपराओं का हवाला देकर घर की चारदीवारी आडे जो उसके आई स्वतंत्र देश के लोकतंत्र की ऐसी दुर्गति किसी ने ना करवाई खुद की रोटियां सेकने में भूल गए वो किसी और के जिस्म पर गहरे घाव जो कर आये ना समझ मौलिक अधिकारों की ना समझ अपने कर्तव्यों की ना ही समझ इस विशाल देश के लोकतंत्र की खूबसूरती की क्षीण मानसिकता उनकी किसी और के आडे जो आई दुर्गा, काली की स्वरूपा पर आंख जो दिखलाई ना समझ सका वो नादान गर्भ में नौ माह जिसके वो रहा आज उसी स्वरूपा के रूप पर अपशब्द जो कह रहा खुद को महान दिखलाने में भूल गया वह अपशब्द जिसे कहे उसे ही वह है पूज रहा | #changethinking