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बूढी औरत -न्यायपालीका ..दो साल पहले मेरी गाड़ी से

बूढी औरत -न्यायपालीका ..दो साल पहले मेरी गाड़ी से एक छोटा सा एक्सिडेंट हो गया था उस समय मै  कार चलाना सीख ही रही  थी , ज्यादा नुकसान भी नही हुअा था तो मामला निपटा लिया गया था पर  ताकीद दे दी गईं थी की एक दो बार कोर्ट आना पड  सकता है , मैं लगभग भूल ही चुकी थी  सब पर दो साल के बाद कोर्ट से बुलावा आया और मै तय समय से कुछ पहले ही कोर्ट पहुच गयी  और इंस्पेक्टर का इंतज़ार करने लगी ,मेरी  नज़र पेड़ के नीचे बैठी एक महिला पर पड़ी ...काफ़ी बुजुर्ग थी फटे हुए कपड़े ..कमर झुकी हुई ..चेहरे पर झुर्रिंयाँ , आँखे अंदर तक धँसी हुई , टूटा हुअा चश्मा और जीर्ण शरीर बड़ी दयनीय दशा थी उपेक्षित सी किसी की प्रतीक्षा कर रही थी मन में एक बार विचार आया की जाकर उससे पूछूँ क्या हुअा , फ़िर ख़याल आया अगर अभी गईं जाने कौन सी कहानी सुनाने लगे और कितनी देर तक मैंने उस समय उससे बात करने का विचार त्याग दिया और कोर्ट के प्रांगण से होते हुए अंदर चली गईं ..कुछ ही समय में वो इंस्पेक्टर भी आये जब हम अंदर पहूचे मेरी नज़र सामने बैठी महिला पर पड़ी अरे ये तो वही है पेड़ के नीचे जो थी थोड़ा आश्चर्य , थोड़ा असमंजस हुअा ..मेरी बारी आई और सब बड़ी आसानी से निपट गया महिला होने का थोड़ा लाभ मिला थोड़ी समझाइश और कड़ी हिदायत के साथ मुझे छोड़ दिया गया । दिन ख़त्म हुअा बाहर निकल कर पता चला ,कोर्ट का समय ख़त्म हो चुका था इक्का दुक्का लोग ही बचे थे 
मैने भी जल्दी जल्दी अपनी कार की ओर रूख़ किया कार के पास पहुच कर अचानक मुझे उस महिला का ख़याल आया , वो तो वहीं थी मेरे बाहर निकलते तक फ़िर कहाँ गईं ? बाहर तो नही दिख रही है ? उसकी अवस्था ऐसी नही थी की मुझसे पहले प्रांगण तक पहुँच सके फ़िर ? कही किसी ने बंद तो नही कर दिया उसे ? अनेक प्रश्न क्षण भर में मस्तिष्क में दौड़ गये , मैं बड़ी हड़बड़ी में वापस गई वो महिला वही थी , उसके पास एक फटी सी थैली थी  जिसे उठाने का प्रयास कर रही थी मुझसे रहा ना गया मैं उसके पास पहुँची और मदद करने का प्रस्ताव रखा उसने मुझे देखा और बिना कोई उत्तर दिए प्रयास मे लगी रही मुझे थोड़ा अज़ीब लगा पर मै भी वही उससे बाते करती रही अपने नाम से ले कर कोर्ट तक सफ़र पल मे सुना डाला और वो बिना कोई उत्तर दिए प्रयास करती रही अंत में मुझसे रहा नही गया मैने उसे पीछे हटाया और वो थैला उठाने लगी उसने बड़ी नम्रता से कहा रहने दो बेटी तुम इसे नही हिला पाओगी ये मेरा रोज़ का काम है मै कर लूँगी बस आज थोड़ा बोझ और बढ़ गया है और आवाज़े भी पर मैं कर लूँगी उसके बात ख़त्म करने के पूर्व ही मैं उस थैले को उठा चुकी थी एक किलो आलू से भी कम वजन था उसका मुझे मन ही मन उस महिला पर हँसी आने लगी मैने उससे बाहर चलने को कहा ..कांपते पैरो से वो चलने लगी मैने उससे पुछा इस थैले में क्या है उसने कहा ख़ुद देख लो ..मैने एक पल भी बिना गंवाए उस थैले में हाथ डाला एक छोटी पर मोटी सी पोथी मेरे हाथों में आई ..जिसके कुछ पन्ने काफ़ी गल चुके थे और काफ़ी नये लग रहे थे ..मुझसे रहा नही गया मैने जैसे ही उसे खोलना चाहा उस महिला ने कहा बेटा सोच लो एक बार तुमसे ना हो पाएगा , मैने उसे बड़ी ही हीराकत भरी नज़रों से देखा और जैसे ही पोथी खोली उसमे से नवजात बच्चों के क्रन्दन की आवाज़ आने लगी मैने ध्यान से देखा नवजात कूड़ेदान में पडे थे मैं कांप गईं बड़ी हिम्मत करके आगे बड़ी एक नग्न औरत थी जिसके जिस्म पर कई चोटें थी कई घाव थे अधजला शरीर सिसक रही थी , आगे मुझे उन्नाव की वो बच्ची मिली , फ़िर जम्मू की , कुछ अनजानी बच्चियां अपने घावों को देखकर रोते हुए ,कभी किसी पन्ने पर किसी तेज़ाब में जली लड़कियां मिल जाती कही कई बार नोंची गईं जैसे जैसे मैं उस पोथी के पन्ने पलट रही थी आवाजे तेज़ हो रही थी जो रूह को झकझोर रही थी जैसे ही मैने निर्भया को देखा मैं जम गईं वो नग्न अपने शरीर से टपकते लहू को टकटकी लगाए देख रही थी और उसकी चीखे असहनिय थी मेरे लिए अब तक पोथी से रक्त रिसने लगा था ...वो महिला अब मेरे पास आ चूकी थी उसने पोथी देखी और बोली तुमने ये उल्टी खोल दी और पलट कर मेरे सामने खोल दी , मैने राजगुरु , भगत सिंह और सुखदेव को फाँसी पर देखा , फ़िर लाखों सैनिकों को , पुल के नीचे दबे लोगो को, कुछ फुटपाथ पर सोए,कुछ रैलीयो मे मरते और सूरत के बच्चों को भी ,एक पन्ने पर मुझे कुछ फौजी दिखे जो ताबूत के लिए तडप रहे थे , मुझसे और देखा ना गया मैने पोथी बंद कर दी पसीने से तर मैने जैसे ही बाहर की तरफ अपने पैर बढ़ाएँ लाखों चीखें दीवारों से सुनाई देने लगी मैने चारो तरफ देखा न्याय के लिए तड़पती आकृतियाँ चीख़ रही थी दीवारों से रिसता लहू मुझे साफ़ दिखाई दे रहा था मै वही जम गई तभी उस महिला ने कहा पोथी नही उठाओगि मैने बहूत प्रयास किया पर उसे हिला भी नही सकी तभी किसी की आहट हुई ..दो आकृतियों ने प्रवेश किया उन्होंने एक अंधे व्यक्ति को थामे हुअा था , अंधा कुछ बड़बड़ाते हुए चल रहा था तीनो पोथी के पास आये और उसके ऊपर गाँधीजी को बैठा दिया (वही जिसे आप नोट के रूप में जानते है )चारो ओर शान्ति छा गई तीनो ठहाके लगाते हुए चले गये और महिला ने उस पोथी को उठा लिया जो काफ़ी हल्की हो चूकी थी और थैले में ड़ाल अपने कांपते कदमों से  बाहर जाने लगी मैं भी उसके पीछे चल पड़ी जैसे जैसे हम बाहर निकल रहे थे  फ़िर दीवारों में चिपकी आकृतियों से आवाजे आने लगी थी पर हाँ पोथी हल्की हो गई थी और कुछ और पन्ने जोड़ने के लिए तयार भी .....
बूढी औरत -न्यायपालीका ..दो साल पहले मेरी गाड़ी से एक छोटा सा एक्सिडेंट हो गया था उस समय मै  कार चलाना सीख ही रही  थी , ज्यादा नुकसान भी नही हुअा था तो मामला निपटा लिया गया था पर  ताकीद दे दी गईं थी की एक दो बार कोर्ट आना पड  सकता है , मैं लगभग भूल ही चुकी थी  सब पर दो साल के बाद कोर्ट से बुलावा आया और मै तय समय से कुछ पहले ही कोर्ट पहुच गयी  और इंस्पेक्टर का इंतज़ार करने लगी ,मेरी  नज़र पेड़ के नीचे बैठी एक महिला पर पड़ी ...काफ़ी बुजुर्ग थी फटे हुए कपड़े ..कमर झुकी हुई ..चेहरे पर झुर्रिंयाँ , आँखे अंदर तक धँसी हुई , टूटा हुअा चश्मा और जीर्ण शरीर बड़ी दयनीय दशा थी उपेक्षित सी किसी की प्रतीक्षा कर रही थी मन में एक बार विचार आया की जाकर उससे पूछूँ क्या हुअा , फ़िर ख़याल आया अगर अभी गईं जाने कौन सी कहानी सुनाने लगे और कितनी देर तक मैंने उस समय उससे बात करने का विचार त्याग दिया और कोर्ट के प्रांगण से होते हुए अंदर चली गईं ..कुछ ही समय में वो इंस्पेक्टर भी आये जब हम अंदर पहूचे मेरी नज़र सामने बैठी महिला पर पड़ी अरे ये तो वही है पेड़ के नीचे जो थी थोड़ा आश्चर्य , थोड़ा असमंजस हुअा ..मेरी बारी आई और सब बड़ी आसानी से निपट गया महिला होने का थोड़ा लाभ मिला थोड़ी समझाइश और कड़ी हिदायत के साथ मुझे छोड़ दिया गया । दिन ख़त्म हुअा बाहर निकल कर पता चला ,कोर्ट का समय ख़त्म हो चुका था इक्का दुक्का लोग ही बचे थे 
मैने भी जल्दी जल्दी अपनी कार की ओर रूख़ किया कार के पास पहुच कर अचानक मुझे उस महिला का ख़याल आया , वो तो वहीं थी मेरे बाहर निकलते तक फ़िर कहाँ गईं ? बाहर तो नही दिख रही है ? उसकी अवस्था ऐसी नही थी की मुझसे पहले प्रांगण तक पहुँच सके फ़िर ? कही किसी ने बंद तो नही कर दिया उसे ? अनेक प्रश्न क्षण भर में मस्तिष्क में दौड़ गये , मैं बड़ी हड़बड़ी में वापस गई वो महिला वही थी , उसके पास एक फटी सी थैली थी  जिसे उठाने का प्रयास कर रही थी मुझसे रहा ना गया मैं उसके पास पहुँची और मदद करने का प्रस्ताव रखा उसने मुझे देखा और बिना कोई उत्तर दिए प्रयास मे लगी रही मुझे थोड़ा अज़ीब लगा पर मै भी वही उससे बाते करती रही अपने नाम से ले कर कोर्ट तक सफ़र पल मे सुना डाला और वो बिना कोई उत्तर दिए प्रयास करती रही अंत में मुझसे रहा नही गया मैने उसे पीछे हटाया और वो थैला उठाने लगी उसने बड़ी नम्रता से कहा रहने दो बेटी तुम इसे नही हिला पाओगी ये मेरा रोज़ का काम है मै कर लूँगी बस आज थोड़ा बोझ और बढ़ गया है और आवाज़े भी पर मैं कर लूँगी उसके बात ख़त्म करने के पूर्व ही मैं उस थैले को उठा चुकी थी एक किलो आलू से भी कम वजन था उसका मुझे मन ही मन उस महिला पर हँसी आने लगी मैने उससे बाहर चलने को कहा ..कांपते पैरो से वो चलने लगी मैने उससे पुछा इस थैले में क्या है उसने कहा ख़ुद देख लो ..मैने एक पल भी बिना गंवाए उस थैले में हाथ डाला एक छोटी पर मोटी सी पोथी मेरे हाथों में आई ..जिसके कुछ पन्ने काफ़ी गल चुके थे और काफ़ी नये लग रहे थे ..मुझसे रहा नही गया मैने जैसे ही उसे खोलना चाहा उस महिला ने कहा बेटा सोच लो एक बार तुमसे ना हो पाएगा , मैने उसे बड़ी ही हीराकत भरी नज़रों से देखा और जैसे ही पोथी खोली उसमे से नवजात बच्चों के क्रन्दन की आवाज़ आने लगी मैने ध्यान से देखा नवजात कूड़ेदान में पडे थे मैं कांप गईं बड़ी हिम्मत करके आगे बड़ी एक नग्न औरत थी जिसके जिस्म पर कई चोटें थी कई घाव थे अधजला शरीर सिसक रही थी , आगे मुझे उन्नाव की वो बच्ची मिली , फ़िर जम्मू की , कुछ अनजानी बच्चियां अपने घावों को देखकर रोते हुए ,कभी किसी पन्ने पर किसी तेज़ाब में जली लड़कियां मिल जाती कही कई बार नोंची गईं जैसे जैसे मैं उस पोथी के पन्ने पलट रही थी आवाजे तेज़ हो रही थी जो रूह को झकझोर रही थी जैसे ही मैने निर्भया को देखा मैं जम गईं वो नग्न अपने शरीर से टपकते लहू को टकटकी लगाए देख रही थी और उसकी चीखे असहनिय थी मेरे लिए अब तक पोथी से रक्त रिसने लगा था ...वो महिला अब मेरे पास आ चूकी थी उसने पोथी देखी और बोली तुमने ये उल्टी खोल दी और पलट कर मेरे सामने खोल दी , मैने राजगुरु , भगत सिंह और सुखदेव को फाँसी पर देखा , फ़िर लाखों सैनिकों को , पुल के नीचे दबे लोगो को, कुछ फुटपाथ पर सोए,कुछ रैलीयो मे मरते और सूरत के बच्चों को भी ,एक पन्ने पर मुझे कुछ फौजी दिखे जो ताबूत के लिए तडप रहे थे , मुझसे और देखा ना गया मैने पोथी बंद कर दी पसीने से तर मैने जैसे ही बाहर की तरफ अपने पैर बढ़ाएँ लाखों चीखें दीवारों से सुनाई देने लगी मैने चारो तरफ देखा न्याय के लिए तड़पती आकृतियाँ चीख़ रही थी दीवारों से रिसता लहू मुझे साफ़ दिखाई दे रहा था मै वही जम गई तभी उस महिला ने कहा पोथी नही उठाओगि मैने बहूत प्रयास किया पर उसे हिला भी नही सकी तभी किसी की आहट हुई ..दो आकृतियों ने प्रवेश किया उन्होंने एक अंधे व्यक्ति को थामे हुअा था , अंधा कुछ बड़बड़ाते हुए चल रहा था तीनो पोथी के पास आये और उसके ऊपर गाँधीजी को बैठा दिया (वही जिसे आप नोट के रूप में जानते है )चारो ओर शान्ति छा गई तीनो ठहाके लगाते हुए चले गये और महिला ने उस पोथी को उठा लिया जो काफ़ी हल्की हो चूकी थी और थैले में ड़ाल अपने कांपते कदमों से  बाहर जाने लगी मैं भी उसके पीछे चल पड़ी जैसे जैसे हम बाहर निकल रहे थे  फ़िर दीवारों में चिपकी आकृतियों से आवाजे आने लगी थी पर हाँ पोथी हल्की हो गई थी और कुछ और पन्ने जोड़ने के लिए तयार भी .....

..दो साल पहले मेरी गाड़ी से एक छोटा सा एक्सिडेंट हो गया था उस समय मै कार चलाना सीख ही रही थी , ज्यादा नुकसान भी नही हुअा था तो मामला निपटा लिया गया था पर ताकीद दे दी गईं थी की एक दो बार कोर्ट आना पड सकता है , मैं लगभग भूल ही चुकी थी सब पर दो साल के बाद कोर्ट से बुलावा आया और मै तय समय से कुछ पहले ही कोर्ट पहुच गयी और इंस्पेक्टर का इंतज़ार करने लगी ,मेरी नज़र पेड़ के नीचे बैठी एक महिला पर पड़ी ...काफ़ी बुजुर्ग थी फटे हुए कपड़े ..कमर झुकी हुई ..चेहरे पर झुर्रिंयाँ , आँखे अंदर तक धँसी हुई , टूटा हुअा चश्मा और जीर्ण शरीर बड़ी दयनीय दशा थी उपेक्षित सी किसी की प्रतीक्षा कर रही थी मन में एक बार विचार आया की जाकर उससे पूछूँ क्या हुअा , फ़िर ख़याल आया अगर अभी गईं जाने कौन सी कहानी सुनाने लगे और कितनी देर तक मैंने उस समय उससे बात करने का विचार त्याग दिया और कोर्ट के प्रांगण से होते हुए अंदर चली गईं ..कुछ ही समय में वो इंस्पेक्टर भी आये जब हम अंदर पहूचे मेरी नज़र सामने बैठी महिला पर पड़ी अरे ये तो वही है पेड़ के नीचे जो थी थोड़ा आश्चर्य , थोड़ा असमंजस हुअा ..मेरी बारी आई और सब बड़ी आसानी से निपट गया महिला होने का थोड़ा लाभ मिला थोड़ी समझाइश और कड़ी हिदायत के साथ मुझे छोड़ दिया गया । दिन ख़त्म हुअा बाहर निकल कर पता चला ,कोर्ट का समय ख़त्म हो चुका था इक्का दुक्का लोग ही बचे थे मैने भी जल्दी जल्दी अपनी कार की ओर रूख़ किया कार के पास पहुच कर अचानक मुझे उस महिला का ख़याल आया , वो तो वहीं थी मेरे बाहर निकलते तक फ़िर कहाँ गईं ? बाहर तो नही दिख रही है ? उसकी अवस्था ऐसी नही थी की मुझसे पहले प्रांगण तक पहुँच सके फ़िर ? कही किसी ने बंद तो नही कर दिया उसे ? अनेक प्रश्न क्षण भर में मस्तिष्क में दौड़ गये , मैं बड़ी हड़बड़ी में वापस गई वो महिला वही थी , उसके पास एक फटी सी थैली थी जिसे उठाने का प्रयास कर रही थी मुझसे रहा ना गया मैं उसके पास पहुँची और मदद करने का प्रस्ताव रखा उसने मुझे देखा और बिना कोई उत्तर दिए प्रयास मे लगी रही मुझे थोड़ा अज़ीब लगा पर मै भी वही उससे बाते करती रही अपने नाम से ले कर कोर्ट तक सफ़र पल मे सुना डाला और वो बिना कोई उत्तर दिए प्रयास करती रही अंत में मुझसे रहा नही गया मैने उसे पीछे हटाया और वो थैला उठाने लगी उसने बड़ी नम्रता से कहा रहने दो बेटी तुम इसे नही हिला पाओगी ये मेरा रोज़ का काम है मै कर लूँगी बस आज थोड़ा बोझ और बढ़ गया है और आवाज़े भी पर मैं कर लूँगी उसके बात ख़त्म करने के पूर्व ही मैं उस थैले को उठा चुकी थी एक किलो आलू से भी कम वजन था उसका मुझे मन ही मन उस महिला पर हँसी आने लगी मैने उससे बाहर चलने को कहा ..कांपते पैरो से वो चलने लगी मैने उससे पुछा इस थैले में क्या है उसने कहा ख़ुद देख लो ..मैने एक पल भी बिना गंवाए उस थैले में हाथ डाला एक छोटी पर मोटी सी पोथी मेरे हाथों में आई ..जिसके कुछ पन्ने काफ़ी गल चुके थे और काफ़ी नये लग रहे थे ..मुझसे रहा नही गया मैने जैसे ही उसे खोलना चाहा उस महिला ने कहा बेटा सोच लो एक बार तुमसे ना हो पाएगा , मैने उसे बड़ी ही हीराकत भरी नज़रों से देखा और जैसे ही पोथी खोली उसमे से नवजात बच्चों के क्रन्दन की आवाज़ आने लगी मैने ध्यान से देखा नवजात कूड़ेदान में पडे थे मैं कांप गईं बड़ी हिम्मत करके आगे बड़ी एक नग्न औरत थी जिसके जिस्म पर कई चोटें थी कई घाव थे अधजला शरीर सिसक रही थी , आगे मुझे उन्नाव की वो बच्ची मिली , फ़िर जम्मू की , कुछ अनजानी बच्चियां अपने घावों को देखकर रोते हुए ,कभी किसी पन्ने पर किसी तेज़ाब में जली लड़कियां मिल जाती कही कई बार नोंची गईं जैसे जैसे मैं उस पोथी के पन्ने पलट रही थी आवाजे तेज़ हो रही थी जो रूह को झकझोर रही थी जैसे ही मैने निर्भया को देखा मैं जम गईं वो नग्न अपने शरीर से टपकते लहू को टकटकी लगाए देख रही थी और उसकी चीखे असहनिय थी मेरे लिए अब तक पोथी से रक्त रिसने लगा था ...वो महिला अब मेरे पास आ चूकी थी उसने पोथी देखी और बोली तुमने ये उल्टी खोल दी और पलट कर मेरे सामने खोल दी , मैने राजगुरु , भगत सिंह और सुखदेव को फाँसी पर देखा , फ़िर लाखों सैनिकों को , पुल के नीचे दबे लोगो को, कुछ फुटपाथ पर सोए,कुछ रैलीयो मे मरते और सूरत के बच्चों को भी ,एक पन्ने पर मुझे कुछ फौजी दिखे जो ताबूत के लिए तडप रहे थे , मुझसे और देखा ना गया मैने पोथी बंद कर दी पसीने से तर मैने जैसे ही बाहर की तरफ अपने पैर बढ़ाएँ लाखों चीखें दीवारों से सुनाई देने लगी मैने चारो तरफ देखा न्याय के लिए तड़पती आकृतियाँ चीख़ रही थी दीवारों से रिसता लहू मुझे साफ़ दिखाई दे रहा था मै वही जम गई तभी उस महिला ने कहा पोथी नही उठाओगि मैने बहूत प्रयास किया पर उसे हिला भी नही सकी तभी किसी की आहट हुई ..दो आकृतियों ने प्रवेश किया उन्होंने एक अंधे व्यक्ति को थामे हुअा था , अंधा कुछ बड़बड़ाते हुए चल रहा था तीनो पोथी के पास आये और उसके ऊपर गाँधीजी को बैठा दिया (वही जिसे आप नोट के रूप में जानते है )चारो ओर शान्ति छा गई तीनो ठहाके लगाते हुए चले गये और महिला ने उस पोथी को उठा लिया जो काफ़ी हल्की हो चूकी थी और थैले में ड़ाल अपने कांपते कदमों से बाहर जाने लगी मैं भी उसके पीछे चल पड़ी जैसे जैसे हम बाहर निकल रहे थे फ़िर दीवारों में चिपकी आकृतियों से आवाजे आने लगी थी पर हाँ पोथी हल्की हो गई थी और कुछ और पन्ने जोड़ने के लिए तयार भी .....