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shubhamkumarsing6983
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वेदों की दिशा

ज्ञान प्राप्ति की ओर

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वेदों की दिशा

.।। ओ३म् ।।

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्‌ तन्मयो भवेत्‌ ॥

ॐ (प्रणव) है धनुष तथा आत्मा है बाण, और 'वह', अर्थात् 'ब्रह्म' को लक्ष्य के रूप में कहा गया है। 'उसका' प्रमाद रहित होकर वेधन करना चाहिये; जिस प्रकार शर अर्थात् बाण अपने लक्ष्य में विलुप्त हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य को 'उस' में (ब्रह्म में) तन्मय हो जाना चाहिये।

OM is the bow and the soul is the arrow, and That, even the Brahman, is spoken of as the target. That must be pierced with an unfaltering aim; one must be absorbed into That as an arrow is lost in its target.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.४ ) #मुण्डकोपनिषद् #mundakopanishad #उपनिषद #उपनिषद #ब्रह्मा #वह #him
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

धनुर्गृहीत्वौपनिषदं महास्त्रं शरं ह्युपासानिशितं सन्धयीत।
आयम्य तद् भावगतेन चेतसा लक्श्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि ॥

उपनिषदीय धनुष रूपी महाअश्व को ग्रहण करो, उपासना के द्वारा सुतीक्ष्ण किये हुए बाण को उस पर स्थापित करो, उस 'परतत्त्व' में चित्त को पूर्णतया एकनिष्ठ करके धनुष को खींचो तथा हे सौम्य! उस 'अक्षर ब्रह्म' को लक्ष्य करके, 'उसे' वेधो।

Take up the bow of the Upanishad, that mighty weapon, set to it an arrow sharpened by adoration, draw the bow with a heart wholly devoted to the contemplation of That, and O fair son, penetrate into That as thy target, even into the Immutable.

( मुंकड़ोपनिषद २.२.३ ) #mundakopanishad #upnishad #ved
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

यदर्चिमद्यदणुभ्योऽणु च यस्मिंल्लोका निहिता लोकिनश्च।
तदेतदक्षरं ब्रह्म स प्राणस्तदु वाङ् मनः तदेतत् सत्यं तदमृतं तद् वेद्धव्यं सोम्य विद्धि ॥

यह जो 'ज्योतिर्मान्' है, जो अणुओं से भी सूक्ष्मतर है, जिसके अन्दर समस्त लोक-लोकान्तर एवं उनके लोकवासी सन्निहित हैं, 'वही' है 'यह'-यह अक्षर 'ब्रह्म' प्राणतत्त्व 'वही' है, 'वही' वाणी तथा मन है। 'वही' है 'यह' 'परम सत्य' तथा 'सत्तत्त्व', 'वही' है अमृत तत्त्व तुम्हारे द्वारा 'वही' है वेधनीय, है सौम्य! 'उसी' का वेधन करो (उसमें प्रवेश करो)।

That which is the Luminous, that which is smaller than the atoms, that in which are set the worlds and their peoples, That is This,-it is Brahman immutable: life is That, it is speech and mind. That is This, the True and Real, it is That which is immortal: it is into That that thou must pierce, O fair son, into That penetrate.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.२ ) #मुंडकोपनिषद  #upnishad #उपनिषद #ज्ञान_गंगा #परमेश्वर #परमात्मा #आत्मा #ब्रह्मा #अद्वितीय #सर्वव्याप्त
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

आविः सन्निहितं गुहाचरं नाम महत् पदमत्रैतत्‌ समर्पितम्‌।
एजत् प्राणन्निमिषच्च यदेतज्जानथ सदस-द्वरेण्यं परं विज्ञानाद्यद्वरिष्ठं प्रजानाम्‌ ॥

स्वयं आविर्भूत परम तत्त्व यहाँ सन्निहित है, यह हृद्गुहा में विचरने वाला महान् पद है, इसमें ही यह सब समर्पित है जो गतिमान् है, प्राणवान् है तथा जो दृष्टिमान् है। यह जो यही महान् पद है, उसको ही 'सत्' तथा 'असत्' जानो, जो परम वरेण्य है, महत्तम एवं 'सर्वोच्च' (वरिष्ठ) है, तथा जो प्राणियों (प्रजाओं) के ज्ञान से परे है।

Manifested, it is here set close within, moving in the secret heart, this is the mighty foundation and into it is consigned all that moves and breathes and sees. This that is that great foundation here, know, as the Is and Is not, the supremely desirable, greatest and the Most High, beyond the knowledge of creatures.

( मुंडकोपानिषद २.२.१ ) #मुंडकोपनिषद #उपनिषद #ज्ञान_गंगा  #ज्ञान #वेदत्व #वेदांत #mundakopanishad #upnishads
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

तदेतत्‌ सत्यं मन्त्रेषु कर्माणि कवयो यान्यपश्यंस्तानि त्रेतायां बहुधा संततानि।
तान्याचरथ नियतं सत्यकामा एष वः पन्थाः सुकृतस्य लोके ॥

यह है 'वह' पदार्थों का 'सत्यतत्त्व'ː कवि-द्रष्टाओं ने मन्त्रों१ में जिन कर्म को देखा, वे त्रेतायुग२ में बहुधा विस्तारित हुए। उन कर्मों का एकनिष्ठ होकर 'सत्य' के लिए कामना करते हुए तुम नियमित आचरण करो; पुण्य कर्म-लोक (सुकृत-लोक) के लिए यही तुम्हारा पन्थ है।

This is That, the Truth of things: works which the sages beheld in the Mantras were in the Treta manifoldly extended. Works do ye perform religiously with one passion for the Truth; this is your road to the heaven of good deeds.

( मुंडकोपनिषद १.२.१ ) #उपनिषद #मुंडकोपनिषद #upnishad #karma #कर्म #ज्ञान #वेद
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद्‌ ब्रह्म पश्चाद्‌ ब्रह्म दक्शिणतश्चोत्तरेण।
अधश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम्‌ ॥

यह सब कुछ अमृतस्वरूप 'ब्रह्म' ही है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं; 'ब्रह्म' ही हमारे सम्मुख है, 'ब्रह्म' ही पश्चात् है, हमारे दक्षिण में भी हमारे उत्तर में भी४, हमारे नीचे तथा हमारे ऊपर भी, यह सर्वत्र व्याप्त है। यह सम्पूर्ण अद्भुत विश्व केवल 'ब्रह्म' ही है।

All this is Brahman immortal, naught else; Brahman is in front of us, Brahman behind us, and to the south of us and to the north of us4 and below us and above us; it stretches everywhere. All this is Brahman alone, all this magnificent universe.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.१२ ) #मुण्डकोपनिषद् #upnishad #brahma #सर्वव्यापी #Iternal
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥

वहां न सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्र आभाहीन हो जाता है तथा तारे बुझ जाते हैं; वहां ये विद्युत् भी नहीं चमकतीं, तब यह पार्थिव अग्नि भी कैसे जल पायेगी? जो कुछ भी चमकता है, वह उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।

There the sun shines not and the moon has no splendour and the stars are blind; there these lightnings flash not, how then shall burn this earthly fire? All that shines is but the shadow of his shining; all this universe is effulgent with his light.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.११ ) #मुण्डकोपनिषद् #upnishad #he #sun #moon #आभा #प्रकाश
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

नमस्ते भवभामाय नमस्ते भवमन्यवे।
नमस्ते अस्तु बाहुभ्यामुतो त इषवे नमः ॥

हे क्रोधरूप रुद्रदेव! आपके प्रति हमारा प्रणाम है । हे नीलकण्ठ रुद्र! आपकी दोनों भुजाओं और उनमें धारण किये हुए बाणों को प्रणाम । हे कैलासपति ! आप पर्वत पर रहते हुए भी सबका मंगल करते हैं। हे गिरित्र (पर्वतों के रक्षक) रुद्रदेव! दुष्टों का संहार करने के लिए जिस बाण को आप धारण किये हुए हैं, उस बाण को हम मनुष्यों के लिए कल्याणप्रद बनाएँ। उससे हमारे स्वजनों का संहार न करें ॥

O wrathful Rudradev!  We salute you.  Hey Neelkanth Rudra!  Greetings to both your arms and the arrows held in them.  O Kailasapati!  Even when you are on the mountain, you do everything.  O Giritra (protector of mountains) Rudradev!  To destroy the evil, the arrow which you are wearing, make that arrow beneficial to humans.  Do not kill our relatives with it.

( नीलरुद्रोपनिषद्  १.४ ) #नीलरुद्रोपनिषद् #शिव #शिवरात्रि #रुद्र #नीलकंठ #shiva
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वेदों की दिशा

।। ओ३म्  ।।

हिरण्मये परे कोशे विरजं ब्रह्म निष्कलम्‌।
तच्छुभ्रं ज्योतिषां ज्योतिस्तद्‌ यदात्मविदो विदुः ॥

उस परम हिरण्मय कोश में निष्कलंक, निरवयव 'ब्रह्म' निवास करता है 'वह' 'शुभ्र-भास्वर' है, वह 'ज्योतियों' की 'ज्योति' है, 'वही' है जिसे आत्म-ज्ञानी जानते हैं।

In a supreme golden sheath the Brahman lies, stainless, without parts. A Splendour is That, It is the Light of Lights, It is That which the self-knowers know.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.१० ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #ब्रह्मा #स्वयं #self #brahman
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्शीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्‌ दृष्टे परावरे ॥

हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाता है, जब उस 'परतत्त्व' का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं 'परम सत्ता' है।

The knot of the heartstrings is rent, cut away are all doubts, and a man's works are spent and perish, when is seen That which is at once the being below and the Supreme.

( मुण्डकोपनिषद २.२.९ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #हृदय #मुक्ति #परतत्व #परमात्मा #ईश्वर
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