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Brajesh Kumar Bebak

कविता विचार सत्ता flowers

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बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे
सत्ता से सवाल कौन रहे
राष्ट्र द्रोही का तमगा कौन ले
जिन्हें इतिहास कुछ पता नही
उन्हें इतिहास का गुरु बनने से
कौन रोके
बस सहन करने की आदत डाल लो
गुलामी की भी एक न एक दिन 
आदत हो ही जाएगी ।।
                            --- बृजेश कुमार

©Brajesh Kumar Bebak #कविता #विचार #सत्ता 

#flowers

Shalu Singh

पाँचवी दीवार

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HP

आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता

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आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता
जीव की शारीरिक स्थिति पर विचार करें तो प्रत्यक्षतः यह देखने में आता है कि दो शक्तियाँ अवस्थित हैं। प्रथम पञ्चधा प्रकृति—जिससे हाथ, पाँव, पेट, मुँह, आँख, कान, दाँत आदि शरीर का स्थूल कलेवर बनकर तैयार होता है। इस निर्जीव तत्व की शक्ति और अस्तित्व का भी अपना विशिष्ट विधान है जो भौतिक विज्ञान के रूप में आज सर्वत्र विद्यमान है। जड़ की परमाणविक शक्ति ने ही आज संसार में तहलका मचा रखा है जबकि उसके सर्गाणुओं, कर्षाणुओं, केन्द्रपिण्ड (न्यूक्लिअस) आदि की खोज अभी भी बाकी है। यह सम्पूर्ण शक्ति अपने आप में कितनी प्रबल होगी इसकी कल्पना करना भी कठिन है। द्वितीय—शरीर में सर्वथा स्वतन्त्र चेतन शक्ति , भी कार्य कर रही है जो प्राकृतिक तत्वों की अपेक्षा अधिक शक्तिमान मानी गई है। यह चेतन तत्व संचालक है, इच्छा कर सकता है, योजनायें बना सकता है, अनुसन्धान कर सकता है इसलिये उसका महत्व और भी बढ़-चढ़कर है। हिन्दू ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में जो गहन शोधों के विवरण हैं वे चेतन शक्ति की आश्चर्यजनक शक्ति प्रकट करते हैं। इतना तो सभी देखते हैं कि संसार में जो व्यापक क्रियाशीलता फैली हुई है वह इस चेतना का ही खेल है। इसके न रहने पर बहुमूल्य, बहु शक्ति -सम्पन्न और सुन्दर शरीर भी किसी काम का नहीं रह जाता। आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता

HP

आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता

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आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता
जीवधारियों के शरीर में व्याप्त इस चेतना का ही नाम आत्मा है। सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, ज्ञान तथा प्रयत्न उसके धर्म और गुण हैं। न्याय और वैशेषिक दर्शनों में आत्मा के रहस्यों पर विशद प्रकाश डाला गया है और उसे परमात्मा का अंश बताया गया है। यह आत्मा ही जब सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष आदि विकारों का त्याग कर देती है तो वह परमात्म-भाव में परिणित हो जाता है।

आज भौतिक विचारधारा के लोग इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होते। उनकी दृष्टि में शरीर और आत्मा में कोई भेद नहीं है। इतना तो कोई साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी आसानी से सोच सकता है कि जब उसके हृदय में ऐसे प्रश्न उठते रहते हैं—’मैं कौन हूँ’, ‘मैं कहाँ से आया हूँ’, ‘मेरा स्वरूप क्या है’, ‘मेरे सही शरीर-धारण का उद्देश्य क्या है’ आदि। ‘मैं यह खाऊँगा’, ‘मुझे यह करना चाहिए, ‘मुझे धन मिले’—ऐसी अनेक इच्छायें प्रतिक्षण उठती रहती हैं। यदि आत्मा का प्रथम अस्तित्व न होता तो मृत्यु हो जाने के बाद भी वह ऐसी स्वानुभूतियाँ करता और उन्हें व्यक्त करता। मुख से किसी कारणवश बोल न पाता तो हाथ से इशारा करता, आँखें पलक मारती, भूख लगती, पेशाब होती। पर ऐसा कभी होता नहीं देखा गया। मृत्यु होने के बाद जीवित अवस्था की सी चेष्टायें आज तक किसी ने नहीं कीं, आत्मा और शरीर दो विलग वस्तुयें—दो विलग तत्व होने का यही सबसे बड़ा प्रमाण है। आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता

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आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता

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आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता
जीवधारियों के शरीर में व्याप्त इस चेतना का ही नाम आत्मा है। सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, ज्ञान तथा प्रयत्न उसके धर्म और गुण हैं। न्याय और वैशेषिक दर्शनों में आत्मा के रहस्यों पर विशद प्रकाश डाला गया है और उसे परमात्मा का अंश बताया गया है। यह आत्मा ही जब सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष आदि विकारों का त्याग कर देती है तो वह परमात्म-भाव में परिणित हो जाता है।

आज भौतिक विचारधारा के लोग इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं होते। उनकी दृष्टि में शरीर और आत्मा में कोई भेद नहीं है। इतना तो कोई साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी आसानी से सोच सकता है कि जब उसके हृदय में ऐसे प्रश्न उठते रहते हैं—’मैं कौन हूँ’, ‘मैं कहाँ से आया हूँ’, ‘मेरा स्वरूप क्या है’, ‘मेरे सही शरीर-धारण का उद्देश्य क्या है’ आदि। ‘मैं यह खाऊँगा’, ‘मुझे यह करना चाहिए, ‘मुझे धन मिले’—ऐसी अनेक इच्छायें प्रतिक्षण उठती रहती हैं। यदि आत्मा का प्रथम अस्तित्व न होता तो मृत्यु हो जाने के बाद भी वह ऐसी स्वानुभूतियाँ करता और उन्हें व्यक्त करता। मुख से किसी कारणवश बोल न पाता तो हाथ से इशारा करता, आँखें पलक मारती, भूख लगती, पेशाब होती। पर ऐसा कभी होता नहीं देखा गया। मृत्यु होने के बाद जीवित अवस्था की सी चेष्टायें आज तक किसी ने नहीं कीं, आत्मा और शरीर दो विलग वस्तुयें—दो विलग तत्व होने का यही सबसे बड़ा प्रमाण है। आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता

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आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता

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जीव की शारीरिक स्थिति पर विचार करें तो प्रत्यक्षतः यह देखने में आता है कि दो शक्तियाँ अवस्थित हैं। प्रथम पञ्चधा प्रकृति—जिससे हाथ, पाँव, पेट, मुँह, आँख, कान, दाँत आदि शरीर का स्थूल कलेवर बनकर तैयार होता है। इस निर्जीव तत्व की शक्ति और अस्तित्व का भी अपना विशिष्ट विधान है जो भौतिक विज्ञान के रूप में आज सर्वत्र विद्यमान है। जड़ की परमाणविक शक्ति ने ही आज संसार में तहलका मचा रखा है जबकि उसके सर्गाणुओं, कर्षाणुओं, केन्द्रपिण्ड (न्यूक्लिअस) आदि की खोज अभी भी बाकी है। यह सम्पूर्ण शक्ति अपने आप में कितनी प्रबल होगी इसकी कल्पना करना भी कठिन है। द्वितीय—शरीर में सर्वथा स्वतन्त्र चेतन शक्ति , भी कार्य कर रही है जो प्राकृतिक तत्वों की अपेक्षा अधिक शक्तिमान मानी गई है। यह चेतन तत्व संचालक है, इच्छा कर सकता है, योजनायें बना सकता है, अनुसन्धान कर सकता है इसलिये उसका महत्व और भी बढ़-चढ़कर है। हिन्दू ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में जो गहन शोधों के विवरण हैं वे चेतन शक्ति की आश्चर्यजनक शक्ति प्रकट करते हैं। इतना तो सभी देखते हैं कि संसार में जो व्यापक क्रियाशीलता फैली हुई है वह इस चेतना का ही खेल है। इसके न रहने पर बहुमूल्य, बहु शक्ति -सम्पन्न और सुन्दर शरीर भी किसी काम का नहीं रह जाता। आत्म-सत्ता और उसकी महान् महत्ता
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