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हे बहिर्मुखी, अन्तर्मुख हो! यह वास्तु जगत माया-निर्मित, काया में हमने क्या पाया! कुछ श्वास, चेतना, स्पन्दन, वैभव ने जिसको ललचाया!! क्षण भंगुर सिन्धु तरंगों सा, अस्थिर, उच्छ्रवास पुँज, जीवन! यह समय उधेड़ बुन करता कर्मों से नियति-सुदृढ़-जीवन!! कर्त्तव्य किया फल मिलने पर- पागल! फिर क्यों दुख हो, सुख हो? हे बहिर्मुखी, अन्तर्मुख हो! कलिका-संपुट में ओस-बिन्दु, कुछ क्षण भर का इतिहास लिए! जिसका मिट जाना ही परिचय- है स्निग्ध, मधुर मृदु ह्रास लिये!! पावस-रजनी, घनघोर घटा, झंझावातों का वेग प्रबल विद्युत अस्तित्व बता देती, पल में चमका कर छोर सबल!! स्मिति जैसी यह ज्योति लिए- मानव! जगती के सम्मुख हो! हे बहिर्मुखी, अन्तर्मुख हो!! काया में हमने क्या पाया
Pradyumn awsthi
दुनियां में पूरी की पूरी काया की ही माया बसी हुई है मतलब इंसान से ही माया लगी है और माया के सहारे ही इंसान खड़ा हुआ हैं लेकिन बिना इंसान के दुनिया के सभी ऐशओ आराम व्यर्थ हैं कल्पना कीजिए की यदि आपको पूरी दुनिया मिल जाए लेकिन उस दुनिया में एक भी इंसान ना हो तो आपको कैसा लगेगा जाहिर सी बात है पूरी दुनिया और दुनिया के सभी संसाधन, सुख सुविधाएं, धन दौलत आपको बुरी लगने लगेगी इसी को तो कहते हैं इस तन की माया और इस तन की काया में ही सारी माया बसी हुई है ©"pradyuman awasthi" #तन की काया में सारी माया
Nksahu0007writer
कहीं धुप है कहीं छाया कंचन रूपी है ये काया कुछ है तो इस संसार में वो है सिर्फ मोह माया ©Nksahu0007writer #काया
Arora PR
साँसों का संतुर हर घड़ी बज रहा है तभी तो हमारी ये कंचन काया तरंगीत हो रही है ©Arora PR कंचन काया