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KhAliQ AzaD

भूत का डर

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🎤वो कहते है की हिन्दुस्तान छोड़ दें हम, बताओ भला भूत के डर से मकान छोड़ दें हम,😂 भूत का डर

dilip khan anpadh

#भूत का इंटरव्यू #allalone #कहानी

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भूत का इंटरव्यू (हास्य-कथा)-भाग-2
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हाँ तो पंचर वाले ने मेरी बफदारी को परख,लगभग 5 सालों तक साथ दिया फिर पंचर बनाते हुए एक दिन जेठ की दोपहरी में निकल लिए | माथे पर अपनी बूढी बीबी ( जिसे अम्मा कहता था) और मुझसे 4 साल बड़ी बेटी ( मेरी मुहबोली बहन- चनपटिया)को छोड़ गए | उस भगवान् जैसे माता-पिता की मदद ने इस स्नेह बंधन को कभी न तोड़ने दिया और मैं उनलोगों के साथ ही उस झुग्गी में रहने लगा | अम्मा खाना बनाती थी, चनपटिया दूसरे के घरों में झाड़ू पोछा कर कुछ पैसे घर ले आती थी और मैं एक बार फिर से निठल्ला हो गया क्यूंकि वो पंक्चर वाला धंधा मेरे से चला ही नहीं | ये तमाशा भी ज्यादा दिन न चला और अम्मा बासी खाना खा हैजा से ग्रसित हो चल बसी | चनपटिया भी वय के सपने संजोते हुए एकदिन मिथुन दा जैसे एक अपने से 8 साल बड़े हीरो का हाथ थाम मुंबई टहल दी | बाद में उसका कुछ अत पता न चला | ले दे के मेरे पास अपना निठल्लापन और वो झोपडी बची जो मेरी संपत्ति और सुख-दुःख का साथी था |
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चनपटिया को स्कूल पहुँचाने के कुछ फायदे हुए थे | मैं क्लास के बाहर बैठ घंटो अक्षर-कटूवा मास्टरों का कुछ ज्ञान सुन और देख लेता था | इस तरह धीरे धीरे अक्षरों से रूबरू होता रहा  और शने-शने लिखना-पढना सीख आज के नौजवानों सा रोजगार के सपने देखने लगा था | पर इस अधकट ज्ञान से क्या हासिल होना था सो चुप-चाप चौराहे पर बैठ टुकुर-टुकुर सबका मुँह देखता था और अपने ज्ञान का कद्र ढूंढ़ता था | आने-जाने वालो ने सिक्के फेंकने  शुरू किये तो लगा एक  नया धंधा मिल गया | अब तो रोज बैठने लगा और रोज सौ-पचास उगाहने लगा | इन पैसो से मैंने पेट भरने के अलावा एक नेक काम और किया रद्दी की दुकानों से  सस्ती किताबें खरीद पढने लगा | कोर्स,क्लास और डिग्री का तो पता नहीं पर हिल-हुज्जत और बकथोथी  के लायक कमाल का बन गया | आज आप जिधर भी नजर दौराओ ऐसे ज्ञान-पेलू लोग चौक-चौराहे और चाय की थडी पे पूरा गणतंत्र (भारत) की व्यवस्था करते अक्सर दिख जाएँगे | मैं भी बाचन हेतु यदा-कदा उसमे सरीक होने लगा | इसके अनेक लाभों में से कुछ लाभ मुझे भी मिला | वो कहते हैं ना संगत से गुण होत है संगत से गुण जात उसी सिद्धांत का फायदा होने लगा और कुछ लोगों ने अन्धो में काना राजा (ज्ञानी) के रूप में मेरी इज्जत करने लगे| 
एक दिन सोचा कुछ काम ढूंढा जाए,ये जिल्लत भरी जिंदगी कब तक,सो निकल पड़े काम का पता करने | दिन भर थका पर कोई जुगाड़ न मिला आखिरकार थक के स्टेशन के सामने बैठ गया | एक छोटा सा लड़का बगल में बैठ पेपर बेच रहा था | घंटो उसे ताकता रहा फिर धीरे से सरककर उससे पूछ लिया “अरे भाई इसे बेचने के पैसे मिलते है क्या तुम्हे” ? उसने हामी में सर हिलाया और आवाज लगाई “”” पढ़ लो ताजा खबर, सनसनीखेज खबर  .....”दमदम में चाक़ू घोंप पूरे परिवार का सफाया .........| लोग रुकते 2 रुपये देते और अपनी प्रति ले आगे बढ़ जाते | मैंने मौका देख फिर पूछा, क्या ये काम तुम मुझे भी दिलावा सकते हो क्या? मैं तुमसे उम्र में बड़ा हूँ और पढ़ा लिखा भी,हमदोनो मिलके ज्यादा कमाएँगे |  लड़के ने आँख तरेर कर देखा और नही में सर हिला दिया  | मैं थोरा गिरगिरा कर बोला,देखो भाई मैं गाँव से आया हूँ काम धंधा ढूंढ रहा हूँ मेरी मदद कर दो | उसने चिढ कर कहा, “मैं क्या तुम्हे कोई मंत्री दिख रहा  कि वादों की बौछार कर दूँ ...काम दिला दूँगा, घर दिला दूँगा ... दूर हटो उस्ताद देखेंगे तो आज का मुनाफा भी न देंगे |
मैंने कहा भाई गाँव से आया हूँ काम ढूंढ रहा हूं, इसलिए पूछा | कोई बात नहीं, मैं फिर से कद्दू जैसा मुँह बना के बैठ गया | इतने में एक बाइक पे दो लड़के आए और पेपर वाले लड़के की हाथ से पैसे की थैली छीनने की कोशिश करने लगे | पेपर वाला बच्चा जोर-जोर से चीखने चिल्लाने लगा | बाइक वाले एक लड़ने ने झट से चाकू निकाल लिया | अफरा तफरी मची तो मैं भी भागने के लिए हडबडा के खड़ा होना चाहा | घुटने की हड्डी ने सही सपोर्ट नहीं किया तो लड़खड़ा के बाइक के पीछे बैठे लड़के की पीठ से अपना मुंडी भीरा लिया |  बाइक का बैलेंस बिगड़ा और दोनों औंधे लेट गए सड़क पे | डर के मारे मैं तिगुने आवाज में दहाडा फाड़ने लगा | चेहरे पे मांस कम होने से मेरे सुरसा जैसे फटे मुँह को देख वो दोनों भी बिलबिलाने लगे | लोगो में  मेरे इस दुस्साहस ने उर्जा भर दी | दो-तीन लोग और लपके आनन-फानन में धुलाई कार्यक्रम शुरू हो गया | हर ढिशुम और फटाक की आवाज़ सून मेरे मुँह से डर के मारे दोगुना चीख निकलता था जिसे लोग हौसला अफजाई समझ और तेजी से हाथ पैर चलाने लगते थे | जब लोगो ने उसे घसीट कर पुलिस के हवाले किया तब जाके मेरी साँसे वापस आईं | अभी सांसो को संभाल भी ना पाया था कि भीड़ को चीरता एक तगड़ा सा आदमी आगे आया और लड़के से हाल पूछने लगा | लड़ने ने मेरी तरफ इशारा करके  बताया की इसकी वजह से वो बाइक वाले उससे पैसा नहीं छीन पाए | उस आदमी ने आगे बढ़कर मेरा पीठ थपथपाया और कहा “तुम्हारे जैसे परोपकारी और ईमानदार लोगों पे दुनियां टिकी है |  क्या करते हो ? मन में आया उसका थुथना कूच दूँ | एक तो आंत में साँस उतर नहीं रहा था ऊपर से भूखा, डर के मारे ब्लड-प्रेशर डाउन होने से काँप रहा था ऊपर से हमदर्दी का टॉनिक |
तंदूर जैसे उस आदमी के सहानभूति को देख कुछ और लोगों ने लगे हाथों आशीर्वाद डे देना उचित समझा सो इर्द-गिर्द इकठ्ठा हो लिया| भीड़ में से एक कुराफात पंजाबी के बच्चे ने मेरे पुट्ठे पे हाथ मारकर कहा “ ओए अंकल जी, आप तो गजब के फाइटर हो, एकदम से जमीन के समानांतर उड़ के दोनों को लिटा दिया, एकदम सुपर-मैन की तरह” | पहले तो खा जाने वाली निगाह से उसे देखा फिर चहरे पे थोड़ा नरमी लाके बच्चे से कहा “ऐसा मजबूरन करना पड़ता है बेटा (उसे मेरी मज़बूरी क्या पता?)”| जी में आया की उसके सर पे बंधे टोंटे को पकड़ के उसे जोर-जोर से झुलाऊं और पूछूं की कितना मजा आ रहा उड़ने में लेकिन गुस्से को मुट्ठी बांध दबोच लिया | एक नौजवान ने झट मेरे थूथने से थुथना सटा सेल्फी ली | मेरे सांसो के एहसास से उसका चेहरा ऐसा बना जैसे 103 डिग्री बुखार पे किसी ने उसके मुँह में गोटा नीम्बू निचोड़ दिया हो| मैं जानता था कुछ दूर जाने के बाद ये सबसे पाहिले इस तस्वीर को ही डिलीट करेगा पर आज के इस सेल्फी ट्रेंड को रोकाना उचित नहीं समझा| खैर 
उस तंदूर जैसे ताऊ ने पूछा क्या करते हो?
मन में आया कह दूँ गली-गली घूम के पेट खुजाता हूँ पर शालीनता से बोल दिया “सर काम ढूंढ रहा हूँ”|
ओहो-अच्छा ; कंहा तक पढ़े हो ?
मन में आया पीछू एक लात माडू और कह दूँ हम जैसे लोगों के पढने के लिए तेरे स्वर्गीय दद्दा ने कंही स्कूल खोल रखा था क्या ? फिर सच्चाई बता दी |
उसने जबाब दिया “कोई बात नहीं जरुरी नहीं सही शिक्षा सिर्फ स्कूल से ही मिले” आज-कल जितने एहादी-जेहादी होते हैं वो भी तो किसी स्कूल के बच्चे ही होते हैं,पर उनसे कंहा किसी का भला हो पाता है? उसने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा “तुम नेक दिल हो और बहादुर भी,मैं तुम्हारे लिए कुछ सोचता हूँ | उसने दूसरे दिन उसी जगह आके मिलने कहा |
कसम से ऐसा लगा की कान से सुनामी घूस के माथे में शोर कर रहा हो| मन किया लपक के उसका पाँव पकड़ लूँ और घसीटते हुए अपने झोपड़े में ले जाके कहूँ “कल क्यों चच्चा? आज-अभी-इसी वक़्त मिल के बता दो | मन राखी सावंत की तरह ता-थैया करने लगा| जी चाह उसके पाँव से लिपट के उसके जूते को जीभ से चाट-चाट के ऐनक सा चमका दूँ कि लोग आइना देखना ही भूल जाए | ख़ुशी दवाने के लिए थोड़ा मुँह खोला तो लार टपक गई जिसे झट कमीज के बाजू से पोंछते हुए मैंने कहा “जी जरुर”| 
भीड़ भी छंटने लगी थी | मैंने आनन-फानन में चरणस्पर्श का विधान पूरा किया और हांफते हुए उसके कार का दरवाजा खोल राम भक्त की तरह खड़ा हो गया| वो थुलथुलाते शारीर के साथ कार में समा गया फिर झटके से आगे बढ़ गया|
वो अखबार वाला लड़का फिर से अखबार के ढेर के बीच जा बैठा था | मैंने उसका कर्ज भी चुकता करना उचित समझा और लपक कर उसे अपने बांहों में भरके इमरान हाशमी की तरह  चोंच निकालके चूम लिया | 
उसने मेरे नाक में लगभग ऊँगली घुसेड़ते हुए मुझे अपने से दूर किया और बोला छिः-थू तुम्हारे मुँह से सड़े छांछ जैसी बू आती है,खबडदार जो फिर कभी ऐसी गलती की तो दोनों ठोढ़ी को जोड़ स्टेपल कर दूंगा | 
मैंने प्यार जता के बोला आज से तू मेरा भाई, मेरा लल्ला हम दोनों साथ में काम करेंगे | मैं लगभग मैना की तरह फुदकते घर की और विदा हो लिया | दोपहर से शाम उतर आया था पर आज तो भूख भी ना लगी थी | घर आके सीधा खटिये में झूल गया |  
अगले दिन मैं सुबह सुबह नहा कर , चमेली का तेल बालों में पोत आधे दांत वाले कंघे से झार, शर्ट को झूलते पेंट में खोंस, चनपटिया के रखे एक सूखे डीयो को बगले में रगड़ उस व्यक्ति से मिलने उसी जगह पे जा खड़ा हुआ |
वो अख़बार वाला लड़का अपने काम में मशगुल था| मैंने पूछा कैसे हो भाई? वो मुस्कुरा के बोला चकाचक | मैंने फिर पूछा वो कल वाले तुम्हारे बॉस आज आएँगे ना ?
लड़का मुँह पिचका के बोला पता नहीं, वो थोड़े कड़क जरुर हैं पर दिल से उदार हैं, किसी को निराश नहीं करते | अभी हम दोनों बात कर ही रहे थे कि  एक गाडी हमारे सामने आके रुकी और जब शीशा उतरा तो वही कल वाले थुलथुल चाचा का दो किलो का चेहरा दिखा | उसने पास बुलाया और गाडी में बैठने को कहा | मैं बैठ गया | किसी गाड़ी में बैठने का पहला एहसास था | गाडी चली तो मैं बीच बीच में गद्दे पर जोर लगा उछालने की कोशिश करने लगा |पूरा शहर सरपट पीछे भाग रहा था | जब कभी गाडी तेज हो टर्निंग पे घुमती, माथा सन्न कर उठता | कभी कभी तो सामने से आने वाली गाड़ी को देख आँखे मुंड लेता था पता नहीं वो कब हमारे ऊपर से पीछे चली जाती थी | गाड़ी ने जितनी बार धीरे होने के लिए ब्रेक लिया मैं अपना माथा अगले शीट पे पटक लेता था | पता नहीं लोग चैन से इसमे कैसे सवारी करते हैं?
 आधे घंटे चलने के बाद गाड़ी कोलकाता एक पुराने रोड को क्रॉस कर एक गली में प्रवेश किया | पत्थर की इंटों वाली गली| लगभग सारे मकान लाल रंग के | किनारे से बिना ढक्कन के बहता नाला | बाहर की तुलना में थोड़ी कम रोशनी | कुछ कबाड़ वालों की दुकाने और उसके आगे लगा ठेला| एक-आध सड़क किनारे के बरामदे पे बैठे आवारा कुत्ते | गली के बीचो बीच जुगाली करती खरी गाय | माथे पे मुरेठा मारे पीठ पर बोरा ढोते कुछ मजदूर और एक अजब सी अलसाती शांति | कुछ दूर गली में चलने के बाद गाडी फिर एक बार बाएँ मुड़ एक बहुत ही पुराने मकान के पोर्च में जा खरी हुई | मेरे कुछ सोचने से पहले ड्राईवर ने आके दरवाजा खोला | मैं अन्दर से हाथ जोड़े बाहर निकला ( हाथ जोड़ने की निहायत आदत जो थी)| चाचा जो पहले ही गाडी से  निकल के कदम आगे बड़ा चुके थे ने मुड़कर देखा और थोड़े घूरके हुए अंदाज में बोला “ हाथ जोड़ने की जरुरत नहीं, यंहा तुम किसी चुनाव में वोट मांगने नहीं आए हो” | मैंने करंट छु जाने वाली गति से हाथ नीचे करते हुए पेंट के पीछे के पॉकेट में ठूंस लिया| चाचा अन्दर जा चुके थे मैं भी पीछे लपका| गेट पे प्रेस का बोर्ड लगा था | अन्दर कचरे का अम्बार जैसा पन्ना पसरा पड़ा था | 8-10 लोग काम कर रहे थे | छत से लटका गदे जैसा पंखा घरघराते हुए अपने हिसाब से चल रहा था | एक तरफ अंग्रेजो के समय का एक छपाई मशीन खांसता हुआ बेहाल चल रहा था | मैं समझ गया वो लड़का यंही से छपने वाला पेपर बेच रहा था | मैंने कदम आगे बढाए | दो तीन शीशे का बना केबिन खाली पड़ा था | बीच हॉल में सफ़ेद रंग का एक बड़ा सा पेंडुलम वाला घडी टंगा था जिसकी टिक-टिक गूंजता सा महसूस हो रहा था|
मेरी नज़रे चाचा को तलाशने लगी जो हाल में आते ही ना जाने गधे की सिंघ के माफिक गायब हो गए थे | हाल में काम कर रहे दो चार जनों ने मुझे ऐसे घुर के देखा जैसे मैंने किसी को कटारी मार दी हो और मैंने  हाथ में खून से सना कटारी पकड़ रखा हो| सबकी नरभक्षी नजर से खुद को बचाते मैं एक आदमी जो घुटने पे हाथ रख बैठे बैठ के झाड़ू लगा रहा था उससे पूछ लिया “ बाबा वो कंहा गए”
बाबा ने चश्मा ऊपर करते पूछा “कौन”? #भूत का इंटरव्यू

#allalone

BANDHETIYA OFFICIAL

भूत भूत भूत
डर से कितना डराओगे हर वर्तमान को,
बच्चा समझ रखा है क्या, फिर,
बिगाड़ रहे हो भविष्य को तुम,
भूत में तेरे सरसों में भूत है,
भूत को निचोड़ निकाल ही डाले,
डाले दे बोतल में जिन्न वो,
अंचार डाले कोई चटखारे ले,
या बचे कोई बोतल खोलने से,
भविष्य बचेगा,दशा बचेगी,
दिशा बचेगी,देश बचेगा।

©BANDHETIYA OFFICIAL #भूत का डर!

#cycle

dilip khan anpadh

#भूत का इंटरव्यू भाग 1

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भूत का इंटरव्यू (हास्य-कथा)-Part-1

अहो भाग्य आप लोग मेरे इस“आपबीती कथा संबोधन” सभा में पता पाते ही पधारे | इस सभा के आयोजन का कारण ये है कि “नयी-बला” न्यूज़ पेपर के मालिक ने शरीर से आत्मा के त्याग के समय ( मेरे न्यूज़ का स्क्रिप्ट पढ़ते ही सलट गए ) मुझे इस अखबार के कर्ता-धर्ता का भार सौंप दिया है | वैसे तो मैं बचपन से बड़ा काबिल हूँ अलग बात है इस चीज का घमंड मुझे कभी नहीं हुआ,फिर भी इस काम को करने में मेरे पैर कांपते रहते हैं| खुद से अपेक्षा करता हूँ ताजे,यथार्थ और टनाटन न्यूज़ से मैं इस पदभार का निर्वहन अच्छे से करूँगा |
आप लोग मूक-बधिर हैं फिर भी आज मेरी ब्यथा कथा सुनने श्रवण दीर्घा में बैठे है, जानकर ख़ुशी हुई  | मैंने वो श्राद्ध जैसा निमंत्रण पत्र इसीलिए ही तो छपवाया था कि कान वाले लोग ज्यादा सुनते है और ज्यादा प्रतिक्रिया देते है |आपकी प्रतिक्रिया मिलेगी नहीं क्यूंकि जो सुनने वाले है,वो बोल नहीं पाते और जो बोलने वाले वो,बिना सुने बोलेंगे नहीं और तो और जो लोग सुनने और बोलने दोनों से गए हुए हैं उनकी प्रतिक्रिया निराकार रूप में मिलेगी | अक्सर महफ़िलों और सभाओं में आप, ऐसे लोगों को देख सकते हैं जिन्हें भगवान ने चंगा मुँह-कान दिया है,उनके पाले कुछ पड़े न पड़े पर शुभ्र वस्त्र वाले ये लोग अक्सर महफ़िलों में गर्दन हिलाते नजर आते है,जैसे उनसे बड़ा और कोई ज्ञाता ही न हो | संसद से मोहल्ले तक ऐसे गणमान्यों की तादाद काफी है | संसद में कुर्सियां फेंक और मोहल्लो में खच-पच कर इनकी शान बनी रहती है| खैर उनकी  खोपड़ी में पड़े लीद से मुझे क्या लेना |बहुत जद्दो-जहद और धक्कम-पेल के बाद अपनी जिंदगी को नाले के समान प्रवाह दे पाया हूँ,सोचा सबों को स्नान करा दूँ| आप सभी लोग बड़े घराने से है,पापी तो हो ही नहीं सकते, ऊपर से मुँह में पान और इत्र की महक,भ्रम जाल बुनने को काफी है | धन्य हुआ आप उपस्थित हुए और बिना सुने भी तालियाँ बजा मेरा उत्साहवर्धन की करेंगे | जो बोल नहीं पाते उनका विशेष आभार क्यूंकि प्रतिक्रिया अगर शब्दों में नकद होता है तो झमेला ज्यादा होता है|
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आइये आपको अपना जीवनवृत सुनाता हूँ| सुनकर अगर मर्म समझ ले तो मोक्ष सा अनुभूति होगा| मेरी तो सरकार से आग्रह है मेरे जीवनवृत को विद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में शामिल करें, आज के धत्ते टाइप विद्यार्थियों को अमोघ लाभ मिलेगा और आगे चलकर देश का नाम रौशन करेंगे| खैर उनकी मंशा वो जाने | अपना गुणगान खुद करता हूँ तो पेट में उमेठी होने लगती है, जाने भी दीजिये |
हाँ तो मेरा नाम “””पिलपड़े”” है | पिताश्री ने प्यार से रखा था क्यूँकी उन्हें प्यार करने कि आदत थी | घर तो घर बाहर भी सबको प्रेम देते थे | नत्थू चा के बीबी को दिया,तबसे चिता सजने तक बिकलांग रहे| एक बार 55 कि उम्र में मुजरा सुनते वक्त प्यार उफना तो लोगो के लात घूस्से में दाहिने आँख से दिव्य बन बैठे| छोड़िये बहुत नामचीन थे वो | बिना प्यार के तो उनकी बात ही न बनती थी | बच्चे भी प्यारे लाल बुलाते थे |
उनके प्यार कि पहली और एकलौता निशानी मैं हुआ | उसके बाद सुनने में आया दूसरे बच्चे कि चाह में डॉक्टरों और मंदिरों के चौखट चूमा करते थे | डॉक्टर ने नकार दिया और भगवान् ने संतुष्टि कि घुट्टी पिला, सपोर्ट से इनकार कर दिया| माँ सदमे में आई और चुपके से प्रातः बेला में कूच कर गई | आजन्म ताश और सबाब में डूबे रहे इसलिए जरुरत भर समान इकठ्ठा कर पाए | संत और सात्विक बिचारो से प्रेरित थे, कभी भी आज के लोगों कि तरह ज्यादा संपत्ति कि इच्छा न की| मुखिया और पुलिस की मुखबिरी से घर का खर्च चलता था, इतने से रोटी की जुगाड़ हो जाती थी यही  बहुत था | अपने पद और कर्म के प्रति निष्ठाबान थे लालच कभी उनको छुआ तक नहीं, क्यूंकि ऐसा मौका उनके हाथ कभी लगा ही नहीं| जंहा से जो मिल जाए पेट थपथपा हासिल कर लेते थे | हाँ कभी-कभी दूसरों के खेतों से मूली या गोभी उखाड़ने के एवज में सरे आम बेइज्जती भी मिलती रहती थी | पिछले साल ललन बाबू के बगीचे से आम तोड़ते पकडे गए तो उनके बेशर्म पहलवान बेटे ने किडनी के पास घूंसा मारा था सो रह-रह के रात में उठक-बैठक करते रहते थे | जब घर में खाने को कुछ न होता था तो मुट्ठी भर भूंजा के साथ चार मूली भकोस जाते थे और सड़क पे डकारते फिरते थे | जब कभी घर से बहार खाली पेट जाना पड़ता था तो दोस्तों के बीच बैठ, अजीब सा डकार मार दोस्तों को कहते थे ““””अरे ये औरते भी न .... “चिकेन में कंही इतना मिर्च दिया जाता है? कुछ कह दो तो बिदक जाती है,कम खाओ तो आँखे दिखाती है| अब आज के खाने का क्या कहे?तीन किलो चिकन का मिर्च डाल सत्यानाश कर दी,ऊपर से आग्रह कर-कर के आधा किलो ठुसवा दी |अब तो तरीके से बैठा भी नहीं जाता |चलो पत्ती मिलाओ| इस तरह उनके दोस्तों के बीच उनकी गजब की धौंस थी |वो तो पेट का भूख से गुरगुराना चहरे पर थोड़ी शर्म की लाली खींच देती थी, वरना ये हाथ किसी के न आते थे, भले पीठ पीछे दोस्त उनके दो पुस्त को गाली दे ले|
किसी के घर शादी-ब्याह, पूजन श्राद्ध का आयोजन होता था तो चीफ गेस्ट के रूप में चार दिन उधर ही डटे रहते थे जब तक बचा हुआ माल-सबाब बटोर न ले | मैं तो बस इतना कहना चाहता हूँ जी कि सामाजिकता और दूसरों के प्रति सम्मान तो कोई इनसे सीखते अलग बात है किसी भी तरह के सम्मान के लिए सरकार ने इन्हें कभी याद नहीं किया |
रात ढलते ही जमीन से सटे खटिये पे पसर पूरी रात टर्राते रहते थे| देशी ठर्रे की गंध से दम घुट सा जाता था मेरा,पर मैं भी कम प्रतापी पुत्र नहीं था झेलते हुए उनके पित्रित्व का भार उतार रहा था | जाने भी दीजिये एक दिन घोर बारिस में सोते समय घर कि चौखट को सपोर्ट करने के लिए लगा बल्ला इनके सर पे आ गिरा,हड्डियों में फंसे आत्मा ने अंगराई ली और भारत में तत्काल चल रहे ट्रेंड “मुझे चाहिए आजादी” का नारा लगाते हुए आत्मा ने  शारीर का परित्याग कर दिया| इस तरह उनका “”हरि ॐ तत्सत हो गया””| पिताजी का गाँव वालों पे किये उपकार (कर्ज) अनगिनत थे सो मैं उन्हें अग्नि के हवाले करने के जद्दोजहद में पड़ना उचित नहीं समझा (क्योंकि विश्वास था ये कर्म भी गाँव वाले उनसे निजात के एवज में कर ही देंगे) | मुझे भरोसा था यमराज उन्हें सीधा नर्क ले जाएँगे अलग बात है वंहा भी उनके साथ गुत्थम-गुत्थी  ही होगी पर भरोसा था वंहा पहिले से मुखिया जी और बीडीओ साब पहुंचे हुए हैं इन्हें देखते ही तत्क्षण अपना लेंगे और वंहा भी नए-नए  गुल खिलाने का दौड़ चलेगा |
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उस समय मैं महज 8 साल का था | सुबह घर कि हालत देखी तो खुल के चीख भी न सका की कंही कर्ज देने वाले दबोच न ले| दबे पाँव गाँव से तत्क्षण सन्यास ले लिया |टिकट के पैसे थे नहीं तो ट्रेन में टीटी से पहली मुलाकात बड़ा सौहार्दपूर्ण रहा,बस दो तीन थप्पड़ो और लात से ठेले जाने पर ही निजात मिल गई |दरवाजे के पास अपना स्थान नियत कर, भक्क-भक्क सबका मुँह देखने लगे | बोगी में बैठे लोग “बसुधैब कुटुम्बकम” की लाज रखने के लिए नाम पता पूछने  लग गए थे | एक बच्चे ने आत्मियता दिखाई और थुथरा हुआ समोसा मेरी और बढाया | कूटे जाने के बाद भूख की ललक ने झट उसे  गले के नीचे उतार दिया | बच्चे ने दुबारा कोशिश की थी पर उसकी माँ ने ऐसे आँख तरेरा की पूरा बोगी जान गया कि बच्चा लंपटई कर रहा और अपने बाप की गाढ़ी घूस की कमाई समाज सेवा में ब्यर्थ कर रहा | खैर उस परिवार का भला हो, इतना अपनापन भी अब कौन दिखाता है, आज कल ? भगवान का दिया सब था उसके पास, बस ह्रदय में स्नेह और प्रेम का अभाव था, पर जितना था मैंने उसमे बृद्धि देने हेतु इश्वर से कामना की | कोलकाता के सड़कों ने पनाह दिया और एक पंचर वाले ने काम| जिंदगी कि गाडी आधे पेट खाने से चल पड़ी | भोजन और मेहनत का सेहत पे बेजोड़ असर पड़ा और लम्बाई के हिसाब से मांस-मज्जे न जुड़ पाए|
व्यक्तित्व कुछ ऐसा निखरा की मुझे देख कब्र में लाश भी मुस्कुरा उठे | बचपन में तोहफे में चहरे पर माता (चेचक) के कुछ धब्बे मिले जो आजन्म साथ निभाने का कसम लिए है| पुष्ट भोजन के अभाव में शारीरिक विकास का समीकरण गड़बड़ा गया और धर से, पाँव कुछ ज्यादा लम्बा हो गया | किसी को गले न लगा सकने के दुःख में बांहों की लम्बाई थोड़ी ज्यादा हो गई | दांत जो एक बार बचपन में टुटा तो मसूढ़ों की क्यारियां छोड़ अपना रुख अख्तियार कर लिया | आँखों में दिब्य दोष के कारण फुल वोल्टेज का गोल चश्मा ( जो पंचर वाले ने दिलवाई ताकि उसका पंचर का स्टीकर जंहा तहा चिपका के बर्बाद न करू ) पिछले 12 सालो से सेवारत है | चलता फिरता हूँ तो शरीर का हर पुर्जा अपने हिसाब से सहयोग करता है| सही ताल मेल के अभाव में थोरा झूम-झूम के सामंजस्य अख्तियार करता हूँ | कई दर्जियों से संपर्क किया सबने बस एक ही जवाव दिया “अजी हड्डियों के ढांचे का नाप क्या लेना,बस कपडा दे जाओ शाम तक दोनाली (फुल पेंट) बना दूँगा”| इस करण आजतक सही नाप का कपडा तक नसीब नहीं हुआ | अब क्या-क्या बताऊँ कि इन कपड़ों ने कंहा- कंहा ना बेवक्त झटके दे इज्जत उछाला है  ....बस स्मार्ट दीखता हूँ इंतना समझ लीजिये, और हमारी हंसी तो मत पूछिये झट किसी के चहरे पे ग्रहण लगाने में सक्षम है क्यूंकि आजतक ब्रश नसीब नहीं हुआ और टूथ-पेस्ट हमने देखी नहीं तो दांतों के बीच थोडा खाया पिया रह ही जाता है और ऊपर से सुवाषित मुँह,सोने पे सुहागा है| खैर ये तो अपना-अपना व्यक्तित्व है,मेरे निखार से अक्सर लोग इर्ष्या करते हैं | #भूत का इंटरव्यू भाग 1

Urvashi Kapoor

#भूत का दिन मुकर्रर है….… #विचार

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मौत का दिन मुकर्रर है...?
 एक दिन जरूर आएगी……
मत कर गुरुर अपनी काया पर एक दिन राख बन कर मिट्टी में मिल जाएगी……

©Urvashi Kapoor #भूत का दिन मुकर्रर है….…

dilip khan anpadh

#भूत का इंटरव्यू भाग 3 #allalone #कहानी

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भूत का इंटरव्यू(हास्य कथा) भाग 3
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बाबा ने चश्मा ऊपर करते पूछा “कौन”?
मैंने कहा वही जो मेरे साथ अभी अभी अन्दर आए थे 
बाबा- पर बेटा तुम तो अकेले अन्दर आए हो|
अरे नहीं बाबा मैं उनके साथ ही गाड़ी से आया वो पहले आए पीछे मैं अन्दर आया |
अच्छा अच्छा...साब की बात कर रहे हो ; बैठो वो खुद बुला लेंगे | उन्होंने कोने में पड़ी एक कुर्सी की तरफ इशारा कर बैठने कह दिया | वो कुर्सी कभी जवान और आलिशान रहा होगा| अभी उसमे जगह जगह पच्चर और कांटी ठोके हुए थे जिसके सहारे वो अपनी जिंदगी घसीट रहा था| सुबह से भूखा होने के कारण मुझमे खड़ा होने की हिम्मत न थी सो धप्प से जाके कुर्सी पर बैठ गया| मुँह से उई-ई ई--माँ निकली और राकेट की तरह हवा में उछल के खड़ा हो गया | उस आदमी ने पलट के कहा ढंग से बैठो बेटा | दोनों पट्टों के बीच एक किल निकला हुआ है जो फटे गद्दे के कारण दीखता नहीं | ये कुर्सी बड़े साब इस्तेमाल करते थे उन्होंने तोहफे में मुझे बैठने को दे दिया | बीच-बीच में इसके किल को ठोक दिया करता हूँ आज टाइम नहीं मिला तो निकल आया होगा| इस किल ने मेरी भी बहुत सेवा की है | दो दिन पाहिले चुभा तो देख ही रहे हो खड़े होके झाड़ू मारने लायक नहीं छोड़ा| मेरी ही गलती है|
 मैं मन ही मन उस बुड्ढे की कब्र खोदता मुस्कुरा के बोला |कोई बात नहीं बाबा अब जो होना था वो हो गया,बड़ा बेदर्द कील है,जंग खाके संस्कार से भी गया हुआ लगता है,अब इस दर्द की चर्चा क्या करना ? लगभग झखते हुए फिर कुर्सी के पास आया | हाथ से टटोल काँटी का सही अंदाज लगाया फिर तिरछा हो बैठ गया|
काम करने वाले लोग आते जाते रहे किसी ने मुझे नहीं टोका, न मैंने ही किसी से बात करने की जुर्रत की| ऐसे में न जाने कब आँखे लग गई और खुली तब जब उस बुड्ढे ने लगभग ठेलते हुए जगाया “ ए उठो जी साब अन्दर बुला रहे हैं’| साब शब्द कानो से टकराया तो कच्चे नींद से आँखे फाड़े मैं ऐसे उठ खड़ा हुआ जैसे यमराज सामने खड़े  हो कह रहे हो “भाई कुछ दिनों के लिए मेरी भैंस गिरवी रख लो | सामने बुड्डा दांत किटकिटाते खड़ा था तो मैं सलूट मारने वाले अंदाज में बोला ज..ज..जी कहिये | बुड्ढे ने जोड़ देकर फीर कहा साब अन्दर बुलाए हैं | मैं चाबी दिए रोबोट की तरह उसके पीछे चल पड़ा |
वो एक बंद कमरे के पास जाके रुका और मुझे इशारे से अन्दर जाने को बोला | मैं कैटरीना कैफ की तरह लचकते कमर को संभाले अन्दर प्रवेश किया | बाहर की अपेक्षा थोडा साफ़ कमरा था| एक बड़े से टेबल के उस पार वही चाचा बैठे थे | ठीक पीछे दीवार पे एक बारहसिंघा का सर लगा था| टेबल पे गुलदस्ते में दो चार फुल थे,जो शायद पिछले साल किसी ने दिया हो,ऐसा लगता था| इस तरफ दो कुर्सियां थी जो आग्न्तुके के बैठने के लिए थी| एक डब्बे में 4-5 पेन रखे हुए थे| सामने की दीवार पे एक छोटी पेंडुलम वाली घडी टंगी थी जिसकी छाया एकलौते खड़े आल्मिरह के शीशे में बन रही थी| चाचा के बगल के कोने में कुछ रद्दी सा पेपरों का ढेर था| 
मैंने प्रणाम करने का फजीहत उठाया और खड़ा हो गया | वो सरसरी निगाह से मुझे देखते बोला,बैठ भी जाइये,लंगड़ी मार के थोड़े बिताएंगे। मैं बाहर वाली कुर्सी याद कर सिहर गया, हाथ से टटोला,तसल्ली हुई तो बैठ गया।
कभी ये प्रेस मेरे पिताजी चलते थे | उस समय इस प्रेस से  ““”गोरा-काला” “” पेपर छपता था | देश की आजादी में इस पेपर ने बड़ी भूमिका निभाई थी | हर एडिशन रोज नयी क्रांति लाता  था| एक बार तो उन्होंने गांधी और जिन्ना के विरुद्ध ही राष्ट्रीयता फूंक दी थी इस अखबार के जरिये | फिर क्या 5 दिन विरोध प्रदर्शन हुआ, संस्था पे 5 दिनों का बेन लग गया था| क्या मजाल आज भी कोई गाँधी और जिन्ना के विरोध में बोल ले| खैर लोगो ने भारत के के खंडन को अपना भाग्य समझ लिया था और इन्हें अपना भाग्यविधाता | दूसरे अखबार वाले उन दिनों चाचा जी की स्विमिंग पूल और सिगार पीते हुए फोटो दिखा जनता को अच्छे दिन दिखाने के आश्वाशन में लगे थे| सत्य को जानना कौन चाहता है? देश भेंड बकरियों से भरा पड़ा है बस हांकने वाला चाहिए| उसकी खामियाजा पिताजी ने भी भुगती और एक दिन खुद ही आन्दोलन पे निकल पड़े| गलियां अनजान थी और गली के कुत्तों में पैठ न थी सो एक कुत्ते ने काट लिया फिर वो भौकते हुए आजादी का नारा लगाते स्वर्ग सिधार गए | एक अधेली की भी घोषण उनके नाम न हुई जैसा शाश्त्री जी और पटेल साब के साथ हुआ | प्रेस सालो बंद रहा | कर्मचारी भूखे मारने लगे | माता जी ने सारे  गहने बेच कर्मचारियों को पैसे दिए और पिताजी का जलाया चिराग( मुझे) हमेशा उनकी कहानी सुनाती रही| उम्र के साथ मेरा जज्वा बढ़ता रहा और मैंने "मास- कम्युनिकेशन" करने के बाद इस प्रेस को फिर से जिन्दा करने की ठान ली| अब मैं पिताजी के प्रेस को फिर से नए अखबार छाप बाज़ार दे रहा हूँ | पिछले पंद्रह सालों में सिर्फ यथार्त से रुबरु करवाया है लोगों को फिर भी रफ़्तार नहीं ले पा रहा हूँ| लोगों को फुर्सत नहीं किसी चीज को डिटेल में पढने की और ज्ञान तो अब धरती से उठ चन्द्रमा को छू ही लिया है|
उस आदमी ने कहना जारी रखा “” देखो भाई लोग तो बहुत हमारे पास, पर थोरे कमजोर ह्रदय वाले है| सोच रहा हूँ पेपर को नाया आयाम दूँ | आए दिन बढ़ रहे क्राइम को पेपर में जगह दूँ पर कोई दिलेर मिल ही नहीं रहा जो ऐसे न्यूज़ इकठ्ठा करे | कल जब तुझे बहादुरी से लड़ते देखा तुम्हारे ढांचे को देख लगा तुम्हारा किडनी, गुर्दा, दिल दीमाग तो किसी काम का है नहीं सो तुम ये काम बखूबी संभाल सकते हो वरना तुम भी जानते ही होगे जिम गए लोग अपने सारे अंगो का कितना खयाल रखते हैं| इन्हें  मुँह मांगी कीमत भी दो तो इस काम को करना नहीं चाहते| आज इसलिए तुम्हे यंहा बुलाया |
मन में आया उस आदमी के नाक के नीचे पप्पी लेकर कहूँ”” चच्चा यही तो संपत्ति बचपन  से साथ लिए घूम रहा हूँ इसपर भी नजर गरा दी आपने, फिर खुद पे काबू किया और आँखे भीच उसके मुह के तरफ देखने लगा|
अपनी गोटी बैठता देख ताऊ जी बोलने लगे “देख बेटा काम ज्यादा नहीं है बस शाम को कैमरा ले सड़कों-गलियों में थोडा घुमो और जो कुछ ऐसा लगे की सामाजिकता से अलग हो रहा उसे क्राइम के नाम से रिपोर्ट करो| बदले में पचपन सौ तुम्हारे | सुबह 4 बजे  तुम्हारी छुट्टी और पूरा दिन तुम्हारा| ऐश करोगे |
मैंने काम को तौला | पंक्चर बनाने से तो अच्छा ही था | वैसे भी बिना दानो के शहीद होने पर कौन सा परमबीर चक्र मिलना था मुझे,सो ललचाए दुल्हे सा उसका घरे जैसा मुँह ताकने लगा| 
तीर सही जाता देख उस आदमी का मुह पीतल के हांड़ी सा प्रसन्न हो गया |
उसने तुरंत बॉस सा रंगत मुँह पे लाते हुए कहा,”पर देखो मैं तुम्हे 2 महीने का वक्त दूंगा अगर अच्छी खबर न ला पाए तो सेवा समाप्त समझना” | पर दो महीने काफी होते है और तुम्हारे जैसा पुरुषार्थ वाला आदमी खुद को आसानी से साबित कर सकता है | उम्मीद है तुम मुझे निराश नहीं करोगे |
मैंने बलि के बकड़े सा “हाँ” में मुंडी हिला दिया |
वो कुर्सी से कूदक ऐसे मेरे सर पे हाथ रखा जैसे मंत्र से अभिभूत कर रहा हो| तुरंत 500 निकाल मेरे कमीज में खोंसते बोला .....जा ऐश कर|
फिर बोला जरा रुक | अपने दराज से एक कैमरा निकाल मेरे हवाले करते हुए कहा आज से ही शुरु हो जाओ| शाम ढलते ही निकलो और शहर के अलग अलग जगहों से घटानाएं इकठ्ठा करना शुरू कर दो |
साढ़े तीन किलो का अंग्रेजो के भारत छोड़ते समय कंही से झटक लिया गया केमरे को मैं ऐसे देखने लगा जैसे उसमे आरडीएक्स भरा हो | इस बला से तो मेरे दो पुश्त को तो कंही मुलाक़ात थी ही नहीं |
मैंने पूछा अरे साब मुझे ये चलाने  नहीं आता 
ताऊ खटक के बोले अरे बंदूक थोड़े है जो चलाना है, बस इसके लाल बटन को दवाना है ये खुद ही काम कर देगा | बोलने के साथ ही उन्होंने मेरी ओर कैमरे का मुँह करके एक लाल बटन दावा के कहा सिंपल है बस...... कैमरे को सीधा पकड़ किसी के तरफ करना और लाल बटन दावा देना | मैंने देखा मेरी एक एक्सरे सा फोटो उसके हाथों में आ गया था | बस देखता रहा जैसे कोई जादू देख रहा हूँ |
मैंने पूछा इसमें किसी का भी फोटो लिया जा सकता है जैसे जानवर...पेड़..नेता..?
ताऊ-हाँ..हाँ..जिसकी भी चाहो ले सकते हो इतना कह उन्होंने कैमरे को मेरे गले में दाल दिया मैं किसी पेड़ के नए डाल तरह आगे झुक गया|  कमबख्त अपना वजन तो ढोया न जा रहा था ऊपर से तीन किलो का बोझ अलग | केमरा टाँगे, घुटनों को आपस में टकराते मैं वंहा से निकल पड़ा |
कैमरे और बिना अनुभव के काम का तानाबाना बुनता मैं झोपड़े में आ लेटा| पेट में गुदगुदी हो रही थी | काम तो मिल गया था पर करना कैसे है ये समझ नहीं आ रहा था| कैमरे को मैंने दीवाल पर दीमक खाए विशकर्मा जी के फोटो के आगे रख प्रणाम किया और आगे की रणनीति सोचने लगा |
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शाम ढल चुकी थी |आज पॉकेट में पैसे थे सो ठूस के खाया और चैन से सोया था| पता ही ना चला कब साढ़े पांच बज गए| जेब में बिना शीशे का पिचका हुआ टोर्च रखा| पॉकेट में चार बीडी और दियासलाई डाली | कैमरे को प्रणाम कर गले से लटकाया और आज के प्रथम कार्यदिवस के लिए निकलने को हुआ तभी दुमकटी बिल्ली म्याऊ-म्याऊ करते सिंके से कूद गई| एक पल को तो प्राण हलक में आ गए पर बिल्ली को देख जान में जान आई| आज चूँकि कार्य का पहला दिवस था तो झटाक से एक अगरवत्ती खोंस प्रभू की आरती ठोक डाली वरना ये सब झमेला मुझसे हो नहीं पाता था | वैसे भी इस झोपड़े में भगवान् रहेंगे नहीं ऐसी मेरी सोच थी क्यूंकि यंहा भगवान से जुडी मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव था | घुंडी चढ़ाई और जंग लगे ताले को झुला मैं निकल पड़ा |
लीजिये जी अब मैं एक पत्रकार हूँ | अब तो मान लीजिये पत्रकार होने के लिए ज्ञान की नहीं दया की जरुरत होती है | उस ताऊ ने दया न दिखाया होता तो क्या मैं कभी पत्रकार बन पता| अन्य बिलबिलाते क्राइम-रिपोर्टर (पत्रकार) की तरह मेरा काम भी रात के अँधेरे में हुई घटनाओ को सबके सामने दिन के उजाले में चासनी लपेट पडोसना है| पूरे दिन अपने झोपड़ में दो साल पहले खरीदी हुई चड्ढी पहने गेंहूँ के घुन लगे बोरे सा पसरा रहता हूँ और शाम ढलते ही मुंह उठा गलियों में बौरना शुरू करता हूँ | 
हर दिन की तरह आज भी लगभग 6 PMबजे संध्या में मेरा सूर्योदय हुआ है गुसलखाने से बहार आ चाय की प्याली के साथ “नयी-बला” अख़बार के पन्ने को पलट रहा था |अभी काम शुरू किये चार-पांच दिन ही हुए है हाथ कुछ भी नहीं आया है |ऐसा कहना उचित होगा की अभी काम सिख ही रहा हूँ| क्या कवर करना है,कैसे लिखना है और क्या लिखना है उसकी जानकारी के लिए ऑफिस से दस पुराने अख़बार उठा लाया था उसी के पन्नो को खँगाल रहा था| क्षितिज में अन्धकार की कालिमा फूटने लगी  | लोग अपने अपने घर को वापस लौट रहे थे  | 2-3 घंटे बाद चंद लोग ही घर से बाहर दिखेंगे| और एक मैं,गले में केमरा टांग गली के कुत्तों के साथ सुर में सुर मिलाए इधर उधर भटकता फिरूंगा | करूँ भी क्या पापी पेट का सवाल है | वैसे अभी चंद दिन हुए है इस पेशे में पर लोगों ने मुझे भांप लिया है| चलते हुए अगर किसी से कुछ पूछता हूँ तो  ऐसे फटकारते हैं जैसे मेरा मनहूस सकल देख उन्हें रात का खाना नसीब नहीं होगा| खैर फटकार खा के पचाना भी पत्रकारों की खूबियों में ही गिना जाता है ऐसा बॉस ने ही बताया था |
इस तरह काम करते हुए पूरा माह बीत गया | हाथ न कोई खबर आई, न मैं कोई खास घटना का रिपोर्ट बॉस (ताऊ) को दे पाया| माह के आखिरी दिन बॉस ने हथेली पे पैसे रखते हुए ऐसे आँखे तरेरा था कि एक पल को लगा था सुप्रीम कोर्ट का फैसला उन्होंने अक्षरसः पढ़ा हो और हनीमून मानाने को आमदा हो| पैसे पॉकेट में रखते हुए मैंने दांत निपोड़ कर कह दिया था बॉस आने वाले दिनों में ऐसी खबर दूंगा कि इस अख़बार को सोलह चाँद लग जाएँगे| बॉस ने भी पेपर पे लिखते हुए पान की पिक सटकते हुए बस इतना कहा था “ जरुर से वरना अगले तनख्वाह के साथ बेरोजगार हो जाओगे”



दिलीप कुमार। खाँ"अनपढ़" #भूत का इंटरव्यू भाग 3

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