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Shailendra Singh Yadav

शैलेन्द्र सिंह यादव की कविता प्रेम बिरह

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तेरे बिन बहते अश्रुजल।
गा रहे बिरह की एक गजल।
प्रेम- प्रणय के प्रेम -भंवर में प्रेम -रस बरसाते हैं।
कितने ग़मों सितम सह जाते हैं।
तुम क्या जानो अपने दिल को कितना समझाते हैं।
 तुम क्या समझो तुम बिन कैसे रह पाते हैं।
प्रेम ताप में तपे हुए तेरे बिन नहीं जीना है ।
बढ़ता जाता दर्दो गम पहले से ज्यादा दूना है
रातें दिन कटते नहीं घर आंगन सूना है।
चाहे हों कितने लाख सितम तेरे बिन नहीं रहना है।
कवि:- शैलेन्द्र सिंह यादव

 #NojotoQuote शैलेन्द्र सिंह यादव की कविता प्रेम बिरह

Mihir Choudhary

बिरहा

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तुमने तो हँस के पूछा था  बोलो न कितना प्रेम है 

बोलो कैसे मैं बतलाता
बोलो ना कैसे समझता 

जब अहसास समंदर होता है 
तो शब्द नही फिर मिलते हैं 

उन बेहिसाब से चाहत को कैसे कैसे मैं  बतलाता 
बोलो न कैसे  दिखलाता बोलो न कैसे  समझता 

 तब भी हिसाब का कच्चा था
अब भी हिसाब का कच्चा हूँ

 जो था वो ना मेरे बस का था
अब तो जो हालात हुए उनसे तो मैं अब बेबस हूं

अब अंदर -अंदर सब जलता है
लावा जैसा सा कुछ पलता है

धीमे धीमे  कुछ रिसता है
कुछ टूट-टूट के पीसता है

नस-नस मैं जैसे कुछ खौलता है
धड़कन बिजली सा दौड़ता  है

अब बेहिसाब ये यादे है 
बस बेहिसाब ये चाहत है 

बोलो क्या वो प्रेम ही था 
बोलो न क्या ये प्रेम ही है

मिहिर... बिरहा

Rajesh rajak

फागुन का बिरह,

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सखियां करती फागुन की बातें,
ये सखी,कैसे कटें ये तन्हा रातें,
आ गया बसंत,दुख भए अनंत,
दिन तो बीता प्रियतम की बाट जोहते,
कैसे बीतें बैरन रातें,
यार मिले कोई तलबगार,कसक मिटे मन की,
राग मल्हार फगुआ गाए,प्रीत मिले न यौवन की,
मन मतंग,करता है तंग,फीका सा लागे मोहे लाल रंग,
हे कंत,कर बिरह का अंत,पुलक उठे मोरा अंग अंग,, फागुन का बिरह,

Shailendra Singh Yadav

शैलेन्द्र सिंह यादव की कविता डर धोखे का।

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नहीं जुदाई।
से डरते बस है।
डर धोखे का।
शायरः-शैलेन्द्र सिंह यादव #NojotoQuote शैलेन्द्र सिंह यादव की कविता डर धोखे का।

Bheem Bheemshankar

बिरह मेरे यार का #हॉरर

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Vandana

विरहा वेदना बिछड़न का दर्द,,,,

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तुम जो दूर गए मुझसे,,
मुद्दतों बीत गए मुझे मुस्कुराए,,,
एक उदासी से छाई रहती है मुख में,,
लफ्जों में कैद हो गई है अब खामोशी,,,
ऐसा ना है की प्यास है जिस्म की,,
यह तो एक रूह की कसक है,,,,
ना जिंदगी में कोई वजह है,
बेवजह सी हो गई है मेरी अब दुनियाँ,,
साथ जब तुम थे ना कोई गम था
ना कुछ कम था,,,
तुम्हारी मौजूदगी ही मेरे जीने का सहारा था
अब जो बिछड़न का दर्द है, 
वो आंसू बन छलकते है, मेरे आंखों से,,,,
करवटें बदलती हूं वीरान रातों में,,
तन्हा अकेले ही खुद से लड़ती हूं,,
जज्बातों के बहाव में बह जाती हूं,,
हाँ, मैं उस पल बहुत कमजोर पड़ जाती हूं,
माना जब तुम पास थे पूरा
हक समझती थी,,
नाजायज ख्वाहिशें और भरपूर कोसती थी, 
तुम्हें अपना खुदा समझ मनमर्जियां 
खूब चलाती थी,,,
नादान अल्हड़पन में बहुत तुम्हें सताती थी,, 
आज वह शरारतें उदास निराश बैठी है,,,  विरहा वेदना बिछड़न का दर्द,,,,
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