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kesaravinash
कुछ वर्षों पूर्व तुम चली गई तो सूना पड़ गया संसार। गया था कल तेरे द्वार! उग आए हैं कब्र पर तेरे कुछ भटकते बीजों के भविष्य, कुछ झार- झंखार! पूछा मेरे बेटे ने - कहां हैं दादी? यहां तो झार है, झंखार हैं, सब जगह खार ही खार है। मैंने कहा - बेटे, असुंदर से ही सुन्दर जन्म लेता है। ये जो पेड़ हैं तेरी दादी हैं, हम डार हैं, तुम पात हो, तेरे बच्चे फूल होंगे, और उनके बच्चे फल! और ऐसे ही चलता रहेगा यह संसार। ये झार, ये झंखार, ये पेड़, ये डार! सब, हां, सब! हमारे ही तो हैं परिवार!! पीढ़ियां
ANIL KUMAR
sunset nature प्रेम की तीन सीढियाँ हैं। एक तो साधारण प्रेम है – मित्र- मित्र में, पति- पत्नी में, मॉ- बेटे में, भाई-बहन में। एक असाधारण प्रेम – शिष्य और गुरु में। और एक साधारण- असाधारण दोनों का अतिक्रमण कर जाए, तीसरा प्रेम- आत्मा और परमात्मा में, बूँद में और सागर में। प्रार्थना परम प्रेम है, पराकाष्ठा है प्रेम की। ©ANIL KUMAR प्रेम की सीढ़ियाँ
Manmohan Dheer
जिगर पूरी ताक़त से इक़ इक़ सच कुबूल करता है तज़ुर्बे ही ज़िन्दगी के ये इक़ इक़ सीढियां बनाते हैं असूल असर में आने लगते हैं आधी उम्र के बाद से इंसा कुछ ऐसे ही मुस्तक़बिल नई पीढियां बनाते हैं . पीढियां
Babli BhatiBaisla
ख्वाबों की दुनिया में है ख्वाहिशों की बेड़ियां बेड़ियों को तोड़ती हैं आजमाइशों की सीढ़ियां सिर्फ सोचना और बड़बोलना है बात कोरी खोखली पुरजोर कोशिशों की चाबी से तू खोल खुशियों की बेड़ियां अपनी मेहनत से चढ़ते जाना है तुझे बुलंदियों की सीढ़ियां बबली भाटी बैसला ©Babli BhatiBaisla सीढ़ियां
Radhe Bhaiya
सीढ़िया उन्हे मुबारक जिन्हे छत तक जाना है हमारी मंजिल आसमां है हमे अपना रस्ता खुद बनाना है ©Radhe Bhaiya सीढ़िया उन्हें मुबारक........
ADARSH SAHU
मैंने कभी कहा नहीं, लेकिन पीढ़ियां आज की क्या कहर कर रही है? है जिससे स्वयं उस नींव को अब खंडहर कर रहीं है। वर्तमान में खोकर जिसने कल को बनाया। रहे चाहे जैसे पर हमें सब कुछ दिलाय। वृक्ष के लिए जैसे है बीज गलता। आज के नेत्र में स्वप्न कल का है पलता॥ उसी नेत्र को अब वह फोड़ रही हैं। पीढ़ियां आज की क्या कहर कर रही है? नीव बनकर जिसने महल को संभाला। बनाया उसे दुःस्वप्न की जिसने था पाला॥ जीवन की हर एक पूंजी थी जिसने लगाई। रह गए अकेले अब वही दादा- माई॥ लताएं जड़ों का असर भूल रही हैं। पीढ़ियां आज की क्या कहर कर रही हैं? हुए जब बड़े हम स्वप्न को सहेज। मिली दौलत-शोहरत नाम को न गुरेजे॥ मंदिर सम गृह को हम त्याग आए। मां-बाप थे जो घर में हुए हैं पराए॥ अब घर की अंधेरी उन्हें डस रही है। पीढियां आज की क्या कहर कर रहीं हैं? मां-बाप अकेले ही अब रह रहे हैं। बच्चे बुजुर्गों के सानिध्य से बच रहे हैं॥ आज ने कल को है कल से दूर रखा। कलियों ने फूल को वृक्ष से मरहूम रखा॥ जहां स्नेह था अब सिस्कियाँ बस रही है। पिड़ियां आज की क्या कहर कर रही है? ओ वर्तमान खुद को क्यों भूलते हो। अपने मूल से तुम निर्मूल क्यों हो ? सुनो इतिहास यह है हमको बताता। अपने जड़ के बीना न कोई अस्तित्व पाता। आओ हम पुरातन गौरव लौटाए। ताकि भविष्य की कोपलें मुसकुरायें॥ देखो! कोपलें अब ये मुर्झा रही हैं। पीढियां आज की क्या कहर कर रही हैं ? पीढ़ियां आज की क्या कहर कर रहीं