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orizwan Roomi
क्यों महसूस नहीं होती उसे मेरी तकलीफ़ें जो हर वक़्त साथ जीने मरने की बातें करती थी.... अब जो भी था दरम्यान हमारे, टूटते मकानों की तरह हलाक हो गए....
writervinayazad
✍️✍️ यूं ही नहीं बढ़ती हैं मकानों की कीमतें घर की दरारें रिश्तों का व्यापार करती हैं ©writervinayazad ✍️✍️ यूं ही नहीं बढ़ती हैं मकानों की कीमतें घर की दरारें रिश्तों का व्यापार करती हैं #writervinayazad #Hope
Harshita Dawar
Written by Harshita ✍️✍️ #Jazzbaat बिकें हुए ज़मीर को और क्या बिखवाओंगे। अब तो मकानों की भी कीमतें घट गई है। #relations #cravingforpeace #stillalone #nightthoughts #nightmare #yqthoughts #YourQuoteAndMine Collaborating with Komal Gautam Written by
AK__Alfaaz..
रंग चढ़ा रखा है.., इन मकानों की दीवारों ने भी..खुद पर बहुत खूब.., कि जमाने की बदलती रंगे-फितरत का असर.., इन पर भी हो चला है.., कहीं जाते वक्त इन रंग बिरंगे मकानों को देखकर बस ये ख्याल आया... कि इन्सान की बदलती फितरत को देखकर.. किस तरह इन मकानों की दीवारें भी अपनी रंग
Rakesh frnds4ever
वो रातें जो जाग कर निकलती है जिसमें हर इक पल में अंधेरा आपके मन रूपी भवनों/इमारतों/मकानों की भावनाओं/जज्बातों/ख्वाबों खयालातों रूपी कंद्राओं ओर शिलाओं ओर द्वंद एवम कुंठाओ रूपी खिड़कियों / रोशनदानों से आर पार होता हुआ किसी अनजान अनंत अगमय जगह पर घर करता हुआ बैठता चला जाता है उन रातों की भोर होने में ओर सुबह होने काफी बरसो का असीमित समय लग जाता है,,,... ©Rakesh frnds4ever #WoRaat वो #रातें जो जाग कर निकलती है जिसमें हर इक पल में #अंधेरा आपके #मन रूपी भवनों/इमारतों/मकानों की #भावनाओं /जज्बातों/ख्वाबों खयाल
FIROZ KHAN ALFAAZ
हमने सोचा था, देखेंगे बस एक नज़र, एक नज़र क्या मिली, सिलसिला हो गई ! •••••••••••••••••••••••••••••• रुक-रुक के जाँ निकलती है ‘अल्फ़ाज़’ की जानाँ, हंस हंस के यूँ ग़ैरों से तो बोला न कीजिये ! •••••••••••••••••••••••••••••• उस याद के धुएँ में महकी वही हिना है, मैं जिसकी हर ख़ुशी था, वो ख़ुश मेरे बिना है ! •••••••••••••••••••••••••••••• ख़ुदारा और क्या माँगूँ, तेरी मुझपर इनायत है, कि मेरे साथ माँ भी है, और माँ की दुआ भी है ! •••••••••••••••••••••••••••••• माना की भुला दिया मुझको तेरे शहरवालों ने, हर ईंट पहचानती है मुझे शहर के मकानों की ! ©® फिरोज़ खान अल्फ़ाज़ नागपुर प्रोपर औरंगाबाद बिहार हमने सोचा था, देखेंगे बस एक नज़र, एक नज़र क्या मिली, सिलसिला हो गई ! •••••••••••••••••••••••••••••• रुक-रुक के जाँ निकलती है ‘अल्फ़ाज़’ की जानाँ
MAHENDRA SINGH PRAKHAR
रिश्तों की ऐसी परिभाषा , बस आशा ही आशा है । चाहे जितना प्यार भरो तुम , आती हाथ निराशा है ।। गाँठ लगी रिश्तों में सबके , देखो अब इंसानों की । रिश्तों की दीवार हिली है , पक्के बनें मकानों की । बातों पे अब नहीं भरोसा , यह कैसी अभिलाषा है । रिश्तों की ऐसी परिभाषा ...... देख रहा हूँ मुडकर पीछे , मै अपनी परछाई को । लाई है अब रात अमावस , ले जाने तरुणाई को । झूठे निकले वादे सारे , झूठी सब परिभाषा है रिश्तों की ऐसी परिभाषा , बस आशा ही आशा है ।। चाहे जितना प्यार भरो तुम , बस आशा ही आशा है । रिश्तों की ऐसी परिभाषा , आती हाथ निराशा है । महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR रिश्तों की ऐसी परिभाषा , बस आशा ही आशा है । चाहे जितना प्यार भरो तुम , आती हाथ निराशा है ।। गाँठ लगी रिश्तों में सबके , देखो अब इंसानों क
MAHENDRA SINGH PRAKHAR
गीत:- रिश्तों की ऐसी परिभाषा , बस आशा ही आशा है । चाहे जितना प्यार भरो तुम , आती हाथ निराशा है ।। गाँठ लगी रिश्तों में सबके , देखो अब इंसानों की । रिश्तों की दीवार हिली है , पक्के बनें मकानों की । बातों पे अब नहीं भरोसा , यह कैसी अभिलाषा है । रिश्तों की ऐसी परिभाषा ...... देख रहा हूँ मुडकर पीछे , मै अपनी परछाई को । लाई है अब रात अमावस , ले जाने तरुणाई को । झूठे निकले वादे सारे , झूठी सब परिभाषा है रिश्तों की ऐसी परिभाषा .... पाँव-पाँव तो चलना अब है , जिनकी देखो मजबूरी । स्वार्थ मिटातें है अब देखो , उनके रिश्तों की दूरी ।। मन में जिनके बसती रहती , थी अब तक देख पिपासा । रिश्तों की ऐसी परिभाषा ... चाहे जितना प्यार भरो तुम , बस आशा ही आशा है । रिश्तों की ऐसी परिभाषा , आती हाथ निराशा है । ०६/०६/२०२३ -- महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR गीत:- रिश्तों की ऐसी परिभाषा , बस आशा ही आशा है । चाहे जितना प्यार भरो तुम , आती हाथ निराशा है ।। गाँठ लगी रिश्तों में सबके , देखो अब
Duniya_दुनिया
कविता शीर्षक : तिलचट्टों-से मकान सफ़र की खिड़कियाँ मुझे हरदम याद रहती हैं... और याद रहता है उसका एक मामूली दृश्य, सुदुर पीले खलिहानों और प्रक
FIROZ KHAN ALFAAZ
जिनकी हिफ़ाज़त में इंसान लगे रहते हैं, बेशक वो ख़ुदा महज़ पत्थर के हैं ! - *1* कभी अपनों की शिकायत ग़ैरों से कीजिये, कोई पीछे न रहेगा आग लगाने में ! - *2* एक राज़ कहते-कहते मैं रुक जाता था अक्सर, लेकिन ग़ज़ल में ज़ाहिर हर राज़ हो गया ! - *3* जब रात अँधेरी घिरते ही मेरा साया खो जाता है ! तू चुपके से मन में आकर मेरे साया हो जाता है ! - *4* महज़ नज़दीकियों का कैफ़ है ये रस्म-ए-उल्फ़त, बात तो ये ज़रा कड़वी है, लेकिन यही सच्चाई है ! - *5* बेशक मैं तेरी सोच का हिस्सा हूँ आज भी, अफ़सोस कि तेरे जिस्म का साया मैं नहीं हूँ ! - *6* वो भंवर था हमने जिसको साहिल समझा, अब तो जाँ पे बन आया है वफ़ाओं का सफ़र ! - *7* इस ज़िन्दगी ने यूँ तो, सबको ही आज़माया, कुछ लोग बिखर गए तो कुछ लोग निखर गए ! - *8* माना की भुला दिया मुझको तेरे शहरवालों ने, हर ईंट पहचानती है मुझे शहर के मकानों की ! - *9* क्या कमी है दिल को, दिल समझ नहीं पाता, जवाब न सही, तुम सवाल बनके चले आओ ! - *10* ©® *फिरोज़ खान अल्फ़ाज़* *नागपुर प्रोपर औरंगाबाद बिहार* *स0स0-9231/2017* जिनकी हिफ़ाज़त में इंसान लगे रहते हैं, बेशक वो ख़ुदा महज़ पत्थर के हैं ! - *1* कभी अपनों की शिकायत ग़ैरों से कीजिये, कोई पीछे न रहेगा आग लगाने