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B.L. Paras
मैं ढूँडता हूँ जिसे वो जहाँ नहीं मिलता, नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता । नई ज़मीन नया आसमाँ भी मिल जाए, नए बशर का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता । वो तेग़ मिल गई जिस से हुआ है क़त्ल मिरा, किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता । वो मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे, कि जिन में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता । जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यूँ, यहाँ तो कोई मिरा हम-ज़बाँ नहीं मिलता । खड़ा हूँ कब से मैं चेहरों के एक जंगल में, तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता । नमन कैफ़ी आज़मी साहब !!
Mehfil-e-Mohabbat
बस्ती में अपनी हिंदू मुसलमां जो बस गए इंसां की शक्ल देखने को हैं तरस गए ©राहुल रौशन कैफ़ी आज़मी साहब ♥️
Mehfil-e-Mohabbat
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो आँखों में नमी हँसी होंठों पर क्या हाल है क्या दिखा रहे हो ©Mehfil-e-Mohabbat ✍️♥️ कैफ़ी आज़मी साहब ♥️✍️
B.L. Paras
झुकी झुकी सी नज़र बे-क़रार है कि नहीं, दबा दबा सा सही दिल में प्यार है कि नहीं । तू अपने दिल की जवाँ धड़कनों को गिन के बता, मिरी तरह तिरा दिल बे-क़रार है कि नहीं । वो पल कि जिस में मोहब्बत जवान होती है, उस एक पल का तुझे इंतिज़ार है कि नहीं । तिरी उमीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को, तुझे भी अपने पे ये ए'तिबार है कि नहीं । © कैफ़ी आज़मी साहब कैफ़ी आज़मी साहब की एक और बेहतरीन ग़ज़ल
Saurabh Singh
#OpenPoetry गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनो डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ (ना - खुदा : नाविक) गर डूबना ही अपना मुक़द्दर है तो सुनो डूबेंगे हम ज़रूर मगर नाख़ुदा के साथ ~कैफ़ी आज़मी
Raushni Tripathi
बस्ती में अपनी हिन्दू मुसलमाँ जो बस गए इंसाँ की शक्ल देखने को हम तरस गए ~ कैफ़ी आज़मी बस्ती में अपनी हिन्दू मुसलमाँ जो बस गए इंसाँ की शक्ल देखने को हम तरस गए ~ कैफ़ी आज़मी
Raushni Tripathi
कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है - कैफ़ी आज़मी कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले उस इंक़लाब का जो आज तक उधार सा है - कैफ़ी आज़मी
शायवी