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वेदों की दिशा

.।। ओ३म् ।।

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्‌ तन्मयो भवेत्‌ ॥

ॐ (प्रणव) है धनुष तथा आत्मा है बाण, और 'वह', अर्थात् 'ब्रह्म' को लक्ष्य के रूप में कहा गया है। 'उसका' प्रमाद रहित होकर वेधन करना चाहिये; जिस प्रकार शर अर्थात् बाण अपने लक्ष्य में विलुप्त हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य को 'उस' में (ब्रह्म में) तन्मय हो जाना चाहिये।

OM is the bow and the soul is the arrow, and That, even the Brahman, is spoken of as the target. That must be pierced with an unfaltering aim; one must be absorbed into That as an arrow is lost in its target.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.४ ) #मुण्डकोपनिषद् #mundakopanishad #उपनिषद #उपनिषद #ब्रह्मा #वह #him

वेदों की दिशा

।।ॐ।।

अ॒न्धन्तमः॒ प्र वि॑शन्ति॒ येऽस॑म्भूतिमु॒पास॑ते। 
ततो॒ भूय॑ऽइव॒ ते तमो॒ यऽउ॒ सम्भू॑त्या र॒ताः ॥९ ॥

पद पाठ

अ॒न्धम्। तमः॑। प्र। वि॒श॒न्ति॒। ये। अस॑म्भूति॒मित्यस॑म्ऽभूतिम्। उ॒पास॑त॒ इत्यु॑प॒ऽआस॑ते ॥ ततः॑। भूय॑ऽइ॒वेति॒ भूयः॑ऽइव। ते। तमः॑। ये। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सम्भू॑त्या॒मिति॒ सम्ऽभू॑त्या॒म्। र॒ताः ॥९ ॥

(ये) जो लोग परमेश्वर को छोड़कर (असम्भूतिम्) अनादि अनुत्पन्न सत्व, रज और तमोगुणमय प्रकृतिरूप जड़ वस्तु को (उपासते) उपास्यभाव से जानते हैं, वे (अन्धम्, तमः) आवरण करनेवाले अन्धकार को (प्रविशन्ति) अच्छे प्रकार प्राप्त होते और (ये) जो (सम्भूत्याम्) महत्तत्त्वादि स्वरूप से परिणाम को प्राप्त हुई सृष्टि में (रताः) रमण करते हैं (ते) वे (उ) वितर्क के साथ (ततः) उससे (भूय इव) अधिक जैसे वैसे (तमः) अविद्यारूप अन्धकार को प्राप्त होते हैं ॥

(These) Those who know God (Asambhuti) except the infinitely unintelligible entity, Raja and Tamogunamya, the root object of nature (Upasate), they (Andam, Tama), the covering darkness (the entry) will get well and (these)  ) Those who achieve the result of the (Sambhutyam) Mahātattvādī form (Rātāh) in the creation (Ram): They (U) with vitarka (s) (more) than (the earth) are more like (Tama) in the dark darkness.  
 
ईशोपनिषद मंत्र ९ #उपनिषद #ईशोपनिषद

वेदों की दिशा

।। ॐ ।।

तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यान्देवान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्शुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥

केनोपनिषद चतुर्थ खण्ड मंत्र २ #केनोपनिषद #उपनिषद

वेदों की दिशा

।। ॐ ।।

प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते।
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम्‌ ॥

जब यह ऐसे प्रत्यक्ष बोध के द्वारा जाना जाता है जो ‘इसे’ प्रतिबिम्बित करता है, तभी व्यक्ति 'इसका’ विचार बना पाता है, क्योंकि उससे व्यक्ति को अमृतत्व की उपलब्धि होती है; उपलब्धि के लिए व्यक्ति को आत्मा से वीर्य (शक्ति) प्राप्त होता है तथा विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है।

When It is known by perception that reflects It, then one has the thought of It, for one finds immortality; by the self one finds the force to attain and by the knowledge one finds immortality.

केनोपनिषद द्वितीय खण्ड ४ #केनोपनिषद  #उपनिषद

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

यस्मिन्‌ द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षमोतं मनः सह प्राणैश्च सर्वैः।
तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथामृतस्यैष सेतुः ॥

'वह', जिसमें द्युलोक, पृथ्वी एवं अन्तरिक्ष, मन तथा प्राण की समस्त गलियां अन्तर्भूत हैं, ओत-प्रोत हैं, 'उसको' तुम एकमेव 'आत्मरूप' जानो; इससे भिन्न अन्य वचनों का सर्वथा त्याग कर दो, यही है अमृत का सेतु।

He in whom are inwoven heaven and earth and the midregion, and mind with all the life currents, Him know to be the one Self; other words put away from you: this is the bridge to immortality.

( मुंडकोपनिषद २.२.५ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्‌ परतः परः ॥

वह दिव्य अमूर्त 'पुरुष', वही बाह्य तथा आन्तर (सत्य) है एवं वह 'अज' है; वह प्राणों से परे (अप्राण) एवं मन से परे (अमन) है, वह शुभ्र ज्योतिर्मय एवं अक्षर से भी परे 'परमात्मतत्त्व' है।

He, the divine, the formless Spirit, even he is the outward and the inward and he the Unborn; he is beyond life, beyond mind, luminous, Supreme beyond the immutable.

( मुंडकोपनिषद १.३.२ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #अमूर्त

वेदों की दिशा

।।ॐ।।
अने॑ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी॑यो॒ नैन॑द्दे॒वाऽआ॑प्नुव॒न् पूर्व॒मर्ष॑त्। 
तद्धाव॑तो॒ऽन्यानत्ये॑ति॒ तिष्ठ॒त्तस्मि॑न्न॒पो मा॑त॒रिश्वा॑ दधाति ॥


ब्रह्म के अनन्त होने से जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ प्रथम से ही अभिव्याप्त पहिले से ही स्थिर ब्रह्म वर्त्तमान है, उसका विज्ञान शुद्ध मन से होता है, चक्षु आदि इन्द्रियों और अविद्वानों से देखने योग्य नहीं है। वह आप निश्चल हुआ सब जीवों को नियम से चलाता और धारण करता है। उसके अतिसूक्ष्म इन्द्रियगम्य न होने के कारण धर्मात्मा, विद्वान्, योगी को ही उसका साक्षात् ज्ञान होता है, अन्य को नहीं ॥

Wherever the mind goes from the eternal existence of Brahma, there is an already stable Brahm present in the first place, its science is done with a pure mind, the eye is not observable with senses and blinders. He has set himself up and governs all creatures by the law. Because of his not being very subtle sensible, only God, scholar and yogi get to know about him and not others.

ईशोपनिषद मंत्र 4 #ईशोपनिषद
#उपनिषद
#ब्रह्म

वेदों की दिशा

।।ॐ।।

यस्मि॒न्त्सर्वा॑णि भू॒तान्या॒त्मैवाभू॑द्विजान॒तः।
 तत्र॒ को मोहः॒ कः शोक॑ऽएकत्वम॑नु॒पश्य॑तः ॥

पद पाठ

यस्मि॑न्। सर्वा॑णि। भू॒तानि॑। आ॒त्मा। ए॒व। अभू॑त्। वि॒जा॒न॒त इति॑ विऽजान॒तः ॥ तत्र॑। कः। मोहः॑। कः। शोकः॑। ए॒क॒त्वमित्ये॑क॒ऽत्वम्। अ॒नु॒पश्य॑त॒ऽइत्य॑नु॒पश्य॑तः ॥



हे मनुष्यो ! (यस्मिन्) जिस परमात्मा, ज्ञान, विज्ञान वा धर्म में (विजानतः) विशेषकर ध्यानदृष्टि से देखते हुए को (सर्वाणि) सब (भूतानि) प्राणीमात्र (आत्मा, एव) अपने तुल्य ही सुख-दुःखवाले (अभूत्) होते हैं, (तत्र) उस परमात्मा आदि में (एकत्वम्) अद्वितीय भाव को (अनुपश्यतः) अनुकूल योगाभ्यास से साक्षात् देखते हुए योगिजन को (कः) कौन (मोहः) मूढावस्था और (कः) कौन (शोकः) शोक वा क्लेश होता है अर्थात् कुछ भी नहीं ॥

Hey human  (Yasmine) Looking at the divine, knowledge, science or religion (triumphantly) especially (with attention), all (ghostly) beings (ghosts) are mere (soul, and) just like themselves (unhappy), (tatra) that  Seeing the (ekatvam) unique feeling in the divine etc. (inappropriately), with a favorable yoga practice, Yogijan has (a) who (moh), stupor and (a) who (mourn) mourn or affliction means nothing.

ईशोपनिषद मंत्र ८ #ईशोपनिषद #उपनिषद #Upnishad

वेदों की दिशा

।। ॐ।।
अ॒न्यदे॒वाहुः स॑म्भ॒वाद॒न्यदा॑हु॒रस॑म्भवात्। 
         इति॑ शुश्रुम॒ धीरा॑णां॒ ये न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे ॥१० ॥

पद पाठ

अ॒न्यत्। ए॒व। आ॒हुः। स॒म्भ॒वादिति॑ सम्ऽभ॒वात्। अ॒न्यत्। आ॒हुः। अस॑म्भवा॒दित्यस॑म्ऽभवात् ॥ इति॑। शु॒श्रु॒म॒। धीरा॑णाम्। ये। नः॒। तत्। वि॒च॒च॒क्षि॒र इति॑ विऽचचक्षि॒रे ॥


हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (धीराणाम्) मेधावी योगी विद्वानों से जो वचन (शुश्रुम) सुनते हैं (ये) जो वे लोग (नः) हमारे प्रति (तत्) (विचचक्षिरे) व्याख्यानपूर्वक कहते हैं, वे लोग (सम्भवात्) संयोगजन्य कार्य्य से (अन्यत्, एव) और ही कार्य्य वा फल (आहुः) कहते (असम्भवात्) उत्पन्न नहीं होनेवाले कारण से (अन्यत्) और (आहुः) कहते हैं, (इति) इस बात को तुम भी सुनो ॥

Hey man  Just like we (dhiramanam) hear the words (shushrum) from the meritorious yogi scholars (these) who they (nah) say to us (tatha) (vichchakshire), they (sambhavat) from coincidental work (otherwise, and  ) And the work or fruit (ahuah) says (unambiguously), for reasons that do not arise (otherwise) and (ahuah) says, (Iti) you listen to this thing also
.
ईशोपनिषद मंत्र १० #ईशोपनिषद #उपनिषद #मनुष्य

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

यः सर्वज्ञः सर्वविद्‌ यस्यैष महिमा भुवि।
दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः ॥

जो 'सर्वज्ञ' है 'सर्वविद्' है जिसकी पृथ्वी पर यह सब महिमा है यह 'आत्मा' ही है जो इस दिव्य ब्रह्मपुरी में, इस व्योम में प्रतिष्ठित है।

The Omniscient, the All-wise, whose is this might and majesty upon the earth, is this self enthroned in the divine city of the Brahman, in his ethereal heaven.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.७ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #गुरु
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