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“Kunwar”Kamlesh singh yaduvanshi

क्या किया जाए..कैसे जिया जाए #Society

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वतन वालों वतन न बेंच देना

©Kamlesh singh yaduvanshi क्या किया जाए..कैसे जिया जाए

Aman Tach

अरे दैया रे दैया क्या बोला है #Comedy

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Ek villain

#Chaahat आज का दिन नहीं जिया तो क्या जिया #Society

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आज के दिन को जिसने जी लिया वही भाग्यशाली है जिस मानव ने आज का दिन नहीं जिया वेदर इन है वर्तमान में जीवन अमृत है शेष अमृत है जीवन दिवस को गले लगाइए स्वागत कीजिए आज को संपूर्ण जीने का मनोबल होना ही स्वर प्रथम उपलब्ध है सकारात्मक सोच सार्थक विचार और सद्बुद्धि से वर्तमान में स्थिर होना अलौकिक सुख से अलौकिक आनंद की ओर ले जाता है पल पल जीवन को जीने का उत्साह उमंग एवं उन्माद को जिज्ञासा से जोड़ना चाहिए यह सब लोगों के जीवन का लक्ष्य बन सकता है

©Ek villain #Chaahat आज का दिन नहीं जिया तो क्या जिया

SHANU KI सरगम

दिया संग जिया #PoetInYou #लव

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दिया संग ये जिया जले है
     क्यूँ तुम इसे जलाते हो,
दूर दूर बस दूर रहो तुम,
    क्यूँ अरमान जगाते हो,
इंतजार दिन रात करूँ मैं
   नैन जगे दिन रात पिया,
आज बता दो बोलो तुम क्यूँ
    इतना मुझे सताते हो।

15/9/2017

©SHANU  KI सरगम दिया संग जिया
#PoetInYou

Jiya Wajil khan

ग़ज़ल - 2122 2122 1221 2212

देर   तक   ठहरे   मिज़ाज-ए-मुदारात   इस   कूचे   में
आ रहे   है  अब  तिरे   कुछ   ख़यालात  इस  कूचे  में
 
हमको  ना  दीजो  कोई   गर्द जह'मत  की वाइज  मिरे
हो  गया  हूँ   यक  ब-कैफ़ी-ए-हालात   इस   कूचे   में

तुम   नही  कुरआन   में   बे-सदा   चीखने   वाले   गर
मत  करो  जाया  ये  वक़्त-ए-मुनाजात   इस   कूचे  में

अपने  सब  अहद-ए-वफ़ा  लौटा  दूँगा  तिरे  दर  कभी
जान  ले   सक'ती   है   कोई  मुला'क़ात   इस  कूचे  में

इस मुहब्बत  के   शगूफे   जिया'दा   नही   चलते दाग़
यार   रह'ने   दो   तिरे   सब  इशा'रात    इस  कूचे   में

याँ ये  किसका  खूँ  पड़ा  है  जमीं की  दरारों  में  फिर
कौन   जाहिल  कर  रहा  था   करा'मात  इस  कूचे  में

तुम वक़ा'लत  भी  पढ़े  हो  मगर  चुप ही  रहना जफ़र
इश्क़  के   दामन   मिरे  पाँव   कोई   हिना    से    कटे

रो   रही  है   अब   मिरी   कोई  बा'रात   इस   कूचे  में
अब   नही   मिलती तला'फ़ी-ए-मा'फ़ात  इस  कूचे  में

बे-दिली का शहर  फिर ख़ाक-पत्थर दे सकता है  बस
अब  बड़ा  नुक़'सान   देंगे  ये  हा'जात   इस   कूचे   में

हमने  भी   इक़ दो  ग़ज़ल अप'ने  हाथों रखी  है  जिया
कुछ   दिनों   से   हो  रहा  है, जो  है'यात  इस  कूचे  में

©Jiya Wajil khan #जिया

Jiya Wajil khan

ग़ज़ल- 2122 2122 2122 2122 2

इतने  फ़ाजिल  है मगर  फिर  कुछ  सदायें मार  देती है 
दाग़  हम  कुछ काफि'रों  को अब    दुआयें  मार देती  है 

उस   दरीचे  की  गरेबाँ  कैद है  बस इक़  हिफ़ा'जत  में
अब  मिरे  इस  घर को कुछ क़ा'तिल हवायें मार देती है 

तुम   बड़े शायर नही  लगते बता'ओ  कौन   हो  तुम  याँ
रे   मियाँ   अंजान    लोगों  को   बलायें   -मार   देती  है

कोई  बीमारी  बड़ी    कब  थी मुहब्बत की न'जऱ में यार
कम्बख्त  इक़  इस   मुहब्बत   में   दवायें   मार  देती  है 

कुछ दिनों  हम  दश्त  की छांवों  में रहना चाहते है अब
जाने  किसने   ये  कहा   है  की   फिजायें  मार  देती है 

अहद टूटा, मर नही जाऊंगा शिक'वा  मत करो जाहिल
आद'मी  को  इन   दिनों  ज्यादा  वफा'यें  मार  देती   है 

पीना पड़ता  है जो  मिल'ता है  जहर की उन दुकानों से
आजकल  इस  शहर   बे-मत'लब  रजायें  मार  देती  है

रंग उड़ता भी कहाँ है इस ग़ज़ल का फिर जिया वाजिल
ये  बुरा  है  हाथों  को  अब  कुछ  हिना'यें मार   देती  है

©Jiya Wajil khan #जिया
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