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RADHESHYAM BAIRWA
🐋 *_मुंसी प्रेमचंद जी की एक सुंदर कविता, जिसके एक-एक शब्द को बार-बार पढ़ने को मन करता है-_* _ख्वाहिश नहीं मुझे_ _मशहूर होने की,"_ _आप मुझे पहचानते हो_ _बस इतना ही काफी है।_ _अच्छे ने अच्छा और_ _बुरे ने बुरा जाना मुझे,_ _जिसकी जितनी जरूरत थी_ _उसने उतना ही पहचाना मुझे!_ _जिन्दगी का फलसफा भी_ _कितना अजीब है,_ _शामें कटती नहीं और_ _साल गुजरते चले जा रहे हैं!_ _एक अजीब सी_ _'दौड़' है ये जिन्दगी,_ _जीत जाओ तो कई_ _अपने पीछे छूट जाते हैं और_ _हार जाओ तो_ _अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं!_ _बैठ जाता हूँ_ _मिट्टी पे अक्सर,_ _मुझे अपनी_ _औकात अच्छी लगती है।_ _मैंने समंदर से_ _सीखा है जीने का सलीका,_ _चुपचाप से बहना और_ _अपनी मौज में रहना।_ _ऐसा नहीं कि मुझमें_ _कोई ऐब नहीं है,_ _पर सच कहता हूँ_ _मुझमें कोई फरेब नहीं है।_ _जल जाते हैं मेरे अंदाज से_ _मेरे दुश्मन,_ _एक मुद्दत से मैंने_ _न तो मोहब्बत बदली_ _और न ही दोस्त बदले हैं।_ _एक घड़ी खरीदकर_ _हाथ में क्या बाँध ली,_ _वक्त पीछे ही_ _पड़ गया मेरे!_ _सोचा था घर बनाकर_ _बैठूँगा सुकून से,_ _पर घर की जरूरतों ने_ _मुसाफिर बना डाला मुझे!_ _सुकून की बात मत कर_ _ऐ गालिब,_ _बचपन वाला इतवार_ _अब नहीं आता!_ _जीवन की भागदौड़ में_ _क्यूँ वक्त के साथ रंगत खो जाती है ?_ _हँसती-खेलती जिन्दगी भी_ _आम हो जाती है!_ _एक सबेरा था_ _जब हँसकर उठते थे हम,_ _और आज कई बार बिना मुस्कुराए_ _ही शाम हो जाती है!_ _कितने दूर निकल गए_ _रिश्तों को निभाते-निभाते,_ _खुद को खो दिया हमने_ _अपनों को पाते-पाते।_ _लोग कहते हैं_ _हम मुस्कुराते बहुत हैं,_ _और हम थक गए_ _दर्द छुपाते-छुपाते!_ _खुश हूँ और सबको_ _खुश रखता हूँ,_ _लापरवाह हूँ ख़ुद के लिए_ _मगर सबकी परवाह करता हूँ।_ _मालूम है_ _कोई मोल नहीं है मेरा फिर भी_ _कुछ अनमोल लोगों से_ _रिश्ते रखता हूँ।_ ✍🏻 🙏 Rajesh Kumar Suman Zaniyan मुंशी प्रेमचंद की कविता
Mahima Chouhan
बचेगी लाज जो इसकी हमारी लाज बचती है। छोङा अगर इसे तुमने तो तुम भी छुट जाओगे भले ही हो करोड़ गुण तुम कुछ नहीं रच सकते महज भाषा नहीं यह माँ हमारी हमको रचती है। चाचा चौधरी, पिंकी और प्रेमचंद की कहानी सुनाकर सिखाती हिंदी। #Hindi
dr.vitore kannulal asaram