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jai rangmanch
Ravendra
Anjali Srivastav
*मंजिल* कुछ पगडंडियों का सहारा लिए चलते रहते हैं सतत प्रयास रखने के बावजूद भी मंजिल नसीब नहीं होती अपने भी साथ छोड़ जाते हैं दुख गर है तो सब मुंह मोड़ जाते हैं भटकते हैं फिरते हैं दर बदर कलयुगी राहों पर जहां सिवाय शोषण के कुछ नसीब नहीं है उलाहना का शिकार होना पड़ता है अपनों के ही इर्द गिर्द फिर भी समेट कर,सहेज कर चलना पड़ता है क्योंकि ख्वाहिशों का सागर उमड़ता रहता है जब बढ़ते है कुछ करते हैं तो हमे किसी छांव की उम्मीद नहीं मिलेगी सदा घाव ही घाव पनपेंगे फिर मंजिल के आखिरी छोर तक जाना है अंग के सभी बिबाइयों को प्रसन्नचित होकर भरना होगा नित अनवरत निज स्वार्थ, निहसंकोच तत्पर नभ में उड़ना होगा बड़े सहजता से हिम्मत से मन को कसना होगा फिर मंजिल मिले न मिले समाजिक प्रतिष्ठा का दायित्व बढ़ता जाएगा। स्थिरता से मन सुकून से हो जाएगा मंजिल की डोर हाथो से न जाएगा...!! अंजली श्रीवास्तव ©Anjali Srivastav *मंजिल* कुछ पगडंडियों का सहारा लिए चलते रहते हैं सतत प्रयास रखने के बावजूद भी मंजिल नसीब नहीं होती अपने भी साथ छोड़ जाते हैं
एक इबादत
त्रेता का एक -एक पात्र , कण -कण मर्यादा सिखलाता है, लखनलाल का धैर्य , त्याग,निश्छल -निस्वार्थ और सेवा भाव, भाई -भाभी के प्रति समर्पण , माफ करना ! किन्तु मेरे लिए प्रभु श्री राम से भी श्रेष्ठ लक्ष्मण भईया नज़र आते है...!! जाग रहा यह कौन धनुर्धर जब कि भुवन भर सोता है ? ये पंक्तियाँ मैथिलीशरण गुप्त की रचना 'पंचवटी' से है। गुप्त जी ने यह लखनलाल के लिए लिखा है।