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Mihir Choudhary
तुमने तो हँस के पूछा था बोलो न कितना प्रेम है बोलो कैसे मैं बतलाता बोलो ना कैसे समझता जब अहसास समंदर होता है तो शब्द नही फिर मिलते हैं उन बेहिसाब से चाहत को कैसे कैसे मैं बतलाता बोलो न कैसे दिखलाता बोलो न कैसे समझता तब भी हिसाब का कच्चा था अब भी हिसाब का कच्चा हूँ जो था वो ना मेरे बस का था अब तो जो हालात हुए उनसे तो मैं अब बेबस हूं अब अंदर -अंदर सब जलता है लावा जैसा सा कुछ पलता है धीमे धीमे कुछ रिसता है कुछ टूट-टूट के पीसता है नस-नस मैं जैसे कुछ खौलता है धड़कन बिजली सा दौड़ता है अब बेहिसाब ये यादे है बस बेहिसाब ये चाहत है बोलो क्या वो प्रेम ही था बोलो न क्या ये प्रेम ही है मिहिर... बिरहा
Kumar Manoj Naveen
****मांई-बाप के शारधा** बड़ा रे धरछना प ,बाबू मोर जनमले, आंगन-घरवा उजियार भईल हो। बाझिनी के कलंक कोखी से टूटल, देयादिनी के ताना छूटल हो । बाबू मोर होईहे सेयान, बहुरिया हम उतारब, नाति-पोता हम खेलाईबि, अंगनवा मनसायन होई हो। घरवा में आईल अईसन पतोहिया, मोर बबुआ के भरमईलस, जीयते मुअवलस, शारधा सब बुतवलस हो। अच्छा होईत रहिती निहतनिए, पतोही के ताना ना सुनीति, जिया में नाही घाव होईत हो। आईल इ कईसन जमाना, घरवा में आवते जनाना, माई-बाप के करता बेगाना , जमाना बड़ी बाउर भईले हो। ***नवीन कुमार पाठक *** ©Kumar Manoj माई -बाप के सरधा # #SunSet
Anuj Ray
" बिरहा की रातें" न धुंआ न कहीं ,आग जला करती है, बिरहा की रातें यूं ही ,खामोश जला करती हैं जलता है बदन आग की लपटों में,दो बूंद की उम्मीद लिये, बेबसी हाथ मला करती है। फागुन का महीना हो, या घनी सावनी रातें, पिया मिलन की आस में, यूं ही ख़ला करती हैं। ©Anuj Ray #बिरहा की रातें