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Alpesh Barot
कभी बाते ज्यादा, कभी शब्दो की कमी, कमी मौसम की बारिश, कभी आखों में नमी, कभी याद आती तू, कभी तेरी बातो मे में, कभी मिलना, कभी बिछड़ाना, जिंदगी भी मौसम है, ओर तू मौसम में बहार अल्पेश बारोट कभी बाते ज्यादा, कभी शब्दो की कमी, कमी मौसम की बारिश, कभी आखों में नमी, कभी याद आती तू, कभी तेरी बातो मे में, कभी मिलना, कभी बिछड़ाना, ज
JASRANA
तेरे बिन गुजरते बारों से क्या याद बन चुभ रहे खारों से क्या निगाहों में खिजां का मौसम है जिस्म को सैर-ए-बहारों से क्या दिल की हर चाह तो अधूरी है नज़र को टूटते तारों से क्या जड़ों से खा लिया है दीमक ने शजर को चल रहे आरों से क्या तूफान-ए-बहर से बचा ना सके ऐसे कम्बख्त किनारों से क्या दिल तो प्यासा रहा मुहब्बत में बे-पनाह बह रहे धारों से क्या बारों - समय खारों - काँटों खिजां - पतझड़ शजर-पेड़ तूफान-ए-बहर - समंदर का तूफान #तेरे बिन
AB
कि गुलाबों को होंठो से छू लेने दो, उँगलियों को उँगलियों में पिरो लेने दो, ये जो पल है बस हमारा है मुझे शौक से जी लेने दो मुझे बस तुम्हारा और बस तुम्हारा हो लेने दो , इस रुत-ए-मोहब्बत में मुझे भीग जाने दो,! "बस कसूर है मौसम का और हुस्न पहाड़ों का, यहाँ बारों महिने मौसम जाड़ों का,!" #alpanas,,💚""
Pradeep Phondani
सोने चांदी के बाजोट पर तो दुसरे देव बैठते हैं पर जो शमशान में बैठे वो है मेरे महादेव..
gudiya
अब तो आदत है हमको ऐसे जीने में क्या हुवा गर आँखें सावन है बारो ही महिने में । ©gudiya अब तो आदत है हमको ऐसे जीने में क्या हुवा गर आँखें सावन है बारो ही महिने में । #Ocean #nojotoquote #nojotohindi #nojotoLove #nojotoenglish
दि कु पां
तो फिर छोरी! तू लाज लजाए क्यों... ----------------------------------------- संवेदनाओं के क्रंदन से हो रही वेदनाओ से, निष्प्रभाव हो जो तू जीणा चाहे.. संस्कार विहीन, हो उघड़ जो तू इस्तेहार बण होर्डिंग्स पर चिपकण चाहे.. तो फिर छोरी! तू लाज लजाए क्यों... ----------------------------------------- संस्कारों को बुद्धि दंभ से जो तू बंधण माणे रिश्तों के अनुबंधों से आज़ादी जो तू चाहे.. हो मुक्त, बन उन्मुक्त तू संसार में जीवण चाहे तो फिर छोरी! तू लाज लजाए क्यों... ----------------------------------------- दारू संग सिगरेट जो फूकण चाहें और गुड़गुड़ावण हुक्का संग लडको बारों मा.. कपड़े छोटे पहन जो बदन खुला दिखावण चाहवे और चाह नग्न दिखण की निमण लागे तो फिर छोरी! तू लाज लजाए क्यों... तो फिर छोरी! तू लाज लजाए क्यों... ----------------------------------------- संवेदनाओं के क्रंदन से हो रही वेदनाओ से, निष्प्रभाव हो जो तू जी
Rabindra Kumar Ram
*** कविता *** *** कोशिशे *** " मैं तुझे याद करता हूं , भूलाना चाहता हूं तुझे , कुछ रस बाकी रह गया है , फिर से यादें खारिज कर रहे हैं , यूं तो इतना आसान नहीं भूलना , फिर भी इस हाल में खुद को माहिर कर रहे हैं , ले चल मुझे इन यादों से , फिर से तेरी वादों का जाकिरा बिखरा परा हैं , सोचता हूं समेट लूं खुद को इस में , फिर से तेरी यादें कुछ हलात बिखरे परे हैं , मैं तुझे याद करता हूं , भूलाना चाहता हूं तुझे , कोशिशे हरबार बारो बार होती हैं , खुद को ही मंजूर नहीं हैं , तुझे भूल जाने की कोशिशे नाकाम करते हैं । --- रबिन्द्र राम— % & *** कविता *** *** कोशिशे *** " मैं तुझे याद करता हूं , भूलाना चाहता हूं तुझे , कुछ रस बाकी रह गया है , फिर से यादें खारिज कर रहे हैं , यू
Chandrawati Murlidhar Gaur Sharma
नफ़रत होने लगी अब तो आजकल त्योहारों से। अब प्यार नहीं रहा लिखीं है नफ़रत दिवारो पे। जब खुशियां ही अब तो मातम मेंअक्सर छा जाएं । एक दिन राखी बंधवाये और दूजे दिन लड़ाई कर जाएं। अब कलयुग में बहन देवकी और भाई कंस बन जाएं। अब कैसे कोई बहन राखी और दूज का त्यौहार मनाएं। देखते है आजकल अब तो नफरत भरी नज़रों से। रिश्ता प्यार का था भीगता मन दुआओ की बरसात से स्वार्थ से रिश्ते भर गए हैं नज़र अंदाज हमें कार गए हैं रीत यो ही नहीं बनाई होगी बुजुर्गो ने पता होगा उन्हें । नफरत मे रिश्ते बर्बाद होते देखें होगें तो रीत बनाई है कभी बहन भाई के घरतो कभीभाई बहन केघर गया है ये रीतयहनबनाई होती तो पड़तीजरूरत नहीं रिश्तों से कभी बहन रात भर चुप चाप आंसू न बहाई होती। रोने को मन करताबहुत अब कोई नहीं पूछता हाथों से पावन पर्व और पवित्र रिश्ता बनता मन में प्रेम भाव से ©Chandrawati Murlidhar Gaur Sharma कैप्शन में ✍️चार चुनर मांगी भाई तेरे धन दौलत से एक मांगी भाई तुझसे मेरा कुल बढ़ने की जब बैठी बाजोट पर 😭 दूजी मांगी चुनर जब भानजे भानजी का प
Rabindra Kumar Ram
*** कविता *** *** कोशिशे *** " मैं तुझे याद करता हूं , भूलाना चाहता हूं तुझे , कुछ रस बाकी रह गया है , फिर से यादें खारिज कर रहे हैं , यूं तो इतना आसान नहीं भूलना , फिर भी इस हाल में खुद को माहिर कर रहे हैं , ले चल मुझे इन यादों से , फिर से तेरी वादों का जाकिरा बिखरा परा हैं , सोचता हूं समेट लूं खुद को इस में , फिर से तेरी यादें कुछ हलात बिखरे परे हैं , मैं तुझे याद करता हूं , भूलाना चाहता हूं तुझे , कोशिशे हरबार बारो बार होती हैं , खुद को ही मंजूर नहीं हैं , तुझे भूल जाने की कोशिशे नाकाम करते हैं । --- रबिन्द्र राम ©Rabindra Kumar Ram *** कविता *** *** कोशिशे *** " मैं तुझे याद करता हूं , भूलाना चाहता हूं तुझे , कुछ रस बाकी रह गया है , फिर से यादें खारिज कर रहे हैं , यू
रजनीश "स्वच्छंद"
मैं रोटी को लड़ता हूँ।। मैं रोटी को लड़ता हूँ, वो कारों से चिपके हैं। मुल्क हुआ दोज़ख, वो नारों से चिपके हैं। कंधों पे लाश लिए खुद का, कैसा ये मंज़र है, कफ़न बिन फूलों की, वो हारों से चिपके हैं। हर हर्फ़ रहा लड़ता, अपनी कुछ जगह बनाने को, लश्कर थी खामोश, वो वारों से चिपके हैं। एक दो कौड़ी ही महज़ कीमत इंसानो की, हम कंधे को तरसते थे, वो यारों से चिपके हैं। हर पेट रहा खाली, हर चेहरा मुरझाया था, निवाले मुंह तक तो आये, वो लारों से चिपके हैं। उम्मीद का दरिया भी सूख बेजान हुआ सा है, नज़रें जमीं पे टिकती हैं, वो तारों से चिपके हैं। सीधे जो लिखता हूँ, मसला बदल सा जाता है, हक़ीक़ी बात रही मेरी, वो सारों से चिपके हैं। मुस्कान की गांठें खोल, तितली बन उड़ जाने दूँ, ऐसा नशा रहा मेरा, वो बारों से चिपके हैं। ©रजनीश "स्वछंद" मैं रोटी को लड़ता हूँ।। मैं रोटी को लड़ता हूँ, वो कारों से चिपके हैं। मुल्क हुआ दोज़ख, वो नारों से चिपके हैं। कंधों पे लाश लिए खुद का,