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pranav...
🙏वारी🙏 माऊली तुजियामुळं पावन झालाय आळंदीचा सिद्धेश्वर ।। जसा भक्त पुंडलीकामुळं जाहला पांडुरंग ।। नाथ पैठणहुनं आलं । शोधली अनाथ समाधी ।। गुहेमधी शिरुनी, काढीली । गळी कासलेली मुळी आधी ।। वसुंधरेची एकच फेरी । भक्तांचं लक्ष पाऊल अंतर ।। दुरुनिया पाहे पांडुरंग । नेसुनिया केसरी पितांबर ।। वरुनी पाहता दोन पालखी वाटा । वसुंदरा गळी शुभ्र माळ भासे ।। जसे पांडुरंगचे कर्णी । बिलगले दोन मासे ।। सहस्र सूर कंठांचा,टाळांचा नाद ! मृदुंगाची थाप ।। ऐकुनी नाचे, पांडुरंग मायबाप ।। *(जयवंत)* जयवंत...
pranav...
चिता अंतिम स्थान । चिंता इंधन तयाचे । सगेसोयरे मायेचे ! तोंड देखिले । गर्व चिरा बांधीती । लोभ सोपान तयाचे । राग कळस ! प्राण नेई । साडेतीन हाथ देह । कुडी मुठभर । आत्मा वायुरुपी । लटके अंतराळी । काय आणिले । काय नेतोय । भालावरील रुपया । अग्निने वाकीला । असता प्राण । नाम नाहि । निघता देवाघरी तोंडी विडा कोंबीला। ( जयवंत) जयवंत
Vrishali G
जीवनाच्या नाटकात सहभाग सगळ्यांचा असतो पण आपली भुमिका नाही वठली तर सारा तमाशा होऊन जातो नाटक
Arora PR
स्वप्नलोको के प्रलोबन मुझे कभी सममोहित नहीं कर सकते क्योकि मैं हर स्वप्न कोबन्द आँखों का नाटक ही समझता हूँ ©Arora PR नाटक
अज़नबी किताब
नाटक.. रंगमंच... कलाकार... कला... दर्शक.. कुछ ऐसा हुआ, में रंगमंच पे खड़ी थी, और मेरी कला मेरा हाथ थामे | दर्शक मेरी कला से मुझे पहचानते थे.. क्या खूब कला थी, खुदा की देख हुआ करती थी | एक बार बोली बात, में जमी को ख़त्म हो ने पर भी निभाती थी, कला थी.. वचन निभाने की, नाटक बन गयी.. रंगमंच पे उस खुदा के, में आज एक कटपुतली बन गयी... वचन निभाती नहीं, ऐसा सुना है मेने, दर्शकों से | क्या कहु, कला खो गयी, पर ये कला उनके लिए कायम है, जो सही में आज भी वचन को समझते है | कला खुदा की देन होती है, खुदा भी ख़ुश होते होंगे मेरे वचन ना निभाने से.. -अज़नबी किताब नाटक..
Babli BhatiBaisla
झूठे और ओछे मक्कार महात्मा को कोई नहीं पूछता काले पड़ गए मैले मनको को कोई नहीं पूजता आर्यो की धरती पर शास्त्रों का ऊंचा स्थान है भारत मां के शास्त्रियों की विश्व में अलग पहचान है लाल बहादुर शास्त्री हो या धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री दोनों ने साबित कर दिखाया गरीबी नहीं पिछाड़ती महानता में पिछड़ जाते हैं धनाढ्य भी नीयत से बहुत मूर्ख लगते हैं भूख हड़ताल का नाटक करते हष्ट-पुष्ट काटा है लम्बा सफ़र आंखें मूंद कर अनपढ बहुत थे पढ़ कर समझ गए सभी जयचंद और शकुनि कौन थे बबली भाटी बैसला ©Babli BhatiBaisla नाटक