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Archana pandey
धर्म और प्रचलित नियमों की अवस्था में अंतर समझने की अक्षमता समाज को अधिकांशतः धर्मान्धता की ओर अग्रसर करती है। (अर्चना'अनुपमक्रान्ति') ©Archana pandey #धर्मान्धता
Juhi Grover
सना हुआ था इस तरह वो अपने ही खून के रंग में, सुर्ख लाल सा उसका तन-मन सपनों की लाशों से, बस दिन-ब-दिन अपना ही ईमान खोये जा रहा था, कि अपनों को ही अब पराया समझता जा रहा था। रंग रहा था खूब खुद को अब वो शोहरत के रंग में, अपनों सपनों के शोर से परे अजनबी महफ़िलों में, ज़िन्दगी को अपनी बेजान होते देखता जा रहा था, कि खुद भी खुद से शायद पराया होता जा रहा था। हो चुका था दूर वो अपनी ही इन्सानियत के रंग से, इन्सान हो कर भी इन्सान से दुश्मनी निभा कर के, जानवर का रंग उस पर खूब यों चढ़ता जा रहा था, कि जानवर से भी वो गया गुज़रा होता जा रहा था। कैसे कोई वाकिफ़ हो उस वक़्त की दुर्दशा के रंग से, जब इन्सान ही खुद सना हो यों इन्सान के ही रंग से, दौड़ में पैसों की क्यों अब ये अन्धा होता जा रहा है, कि क्यों खुद का ही वो क़त्ल होते देखता जा रहा है? क्यों निकलना नहीं चाहता बाहर इस अन्धी दौड़ से, क्यों इन्सानियत को ज़ख्मी कर अपने ही स्वार्थ से, क्यों धर्मान्धता की ओर स्वार्थवश बढ़ता जा रहा है, क्यों बिन सोचे समझे पुतला बन चलता जा रहा है? सना हुआ था इस तरह वो अपने ही खून के रंग में, सुर्ख लाल सा उसका तन-मन सपनों की लाशों से, बस दिन-ब-दिन अपना ही ईमान खोये जा रहा था, कि अपनों क
लफ्ज़-ए-राज...
बहुत समय पहले कि बात है भीषण गर्मी(उग्र धर्मान्धता) में बस (बस किसका प्रतीक होता यह आप तय कर लें) अपनी अनिश्चित गति से अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी, एक तो निश्चित आकार-प्रकार(संकीर्ण विचारधारा) की बस ऊपर से भीषण गर्मी, बस में 1 सीट और उस पर 2 महिलाएं, वैसे बस यात्रियों से पूरी तरह भरी हुई थी, लेकिन हम बात कर रहे हैं एक सीट पर 2 महिलाओं की, अचानक एक महिला उठी और उसने खिड़की बंद करते हुए कहा मुझे हवा से परेशानी हो रही है तभी दूसरी महिला ने खिड़की खोलते हुए कहा मुझे बंद खिड़की से घुटन हो रही है। जानते हैं फिर क्या हुआ, खिड़की बंद होने और खुलने का सिलसिला शुरू हो गया उग्रता बढ़ती जा रही थी परिणामतः दोनों महिलाओं के बाल एक दूसरे के हाथ में आ गए, बस में अफरा-तफरी का माहौल हो गया, तभी एक सज्जन उठे और दोनों महिलाओं को डांटते हुए कहा अरे मूर्खों तुम्हारी मति मारी गई है जिस खिड़की(प्रतीक आप तय करें "ना मंदिर कहेंगे ना मस्जिद कहेंगे) के लिए तुम लोग लड़ रही हो उसमें तो शीशा(ईश्वर-अल्लाह-गाॅड-वाहेगुरू) है ही नहीं। दोनों महिलाएं स्तब्ध और अवाक रह गईं। नोट:- इसलिए कहते हैं ज्ञानी से ज्ञानी मिले होय ज्ञान की बात और गद्हा से गद्हा मिले चले धड़ाधड़ लात।।। लेखक:- चौधरी अनिल कुमार राज (प्रिंस राज) #ianilraj01 बहुत समय पहले कि बात है भीषण गर्मी(उग्र धर्मान्धता) में बस (बस किसका प्रतीक होता यह आप तय कर लें) अपनी अनिश्चित गति से अपने गंतव्य की ओर बढ़
Poonam Ritu Sen
"अनभिज्ञता का आवरण लिए अब और चुप नहीं बैठ सकते हम" I performed this poetry on Raipur's 2nd OPEN MIC, Read full poetry in caption ( सभी प्रकार के सामजिक बुराइयों और कुरीतियों को एक ही कविता में पिरो कर एक तरह की खिचड़ी लिखने की कोशिश मैंने की है ) लिप्त हैं आज हमारे समाज मे हजारो बुराइयाँ लाखों में कुरीतियां उनमें से- कुछ छपती है अखबारों में कुछ दिख जाती है आम बाजारों में कुछ बिकती है
Aprasil mishra
"वैश्विक समाज की शवाधान प्रणालियों में अन्तर एवं उनकी ऐतिहसिक पृष्ठभूमियाँ : जमींन-जिहाद के आलोक में।" **************************************** वैश्विक समाज में जनगत मानसिकता आज जिस तरह साम्प्रदायिक चरमपंथ में वैमनस्य का शिकार हो