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Shabana Nafees
शहर में ज़िन्दगी मुसलसल मशीन पे कसती जाती है कोट सूट के बोझ तले रूह इंसान की दबती जाती है 20/4/20
Shabana Nafees
हम जब अपने घरों में सुकून से बैठें हैं न जाने कितने ऐसे हैं जो इस वक़्त सड़क पर लेटे हैं सर पर छत नहीं पेट में कुछ दिनों से दाना नहीं बच्चों को क्या कह कर बहलायें बचा अब कोई बहाना भी तो नहीं सैकड़ों किलोमीटर चल चुके हैं थक कर टूट कर अब सड़क पर ही लेट चुके हैं आंखें ख़ाली मिलों दूर तक कोई उम्मीद नहीं कोई आस नहीं अपना गांव होता तो चिंता न होती पर परदेस में तो अपना मददगार भी कोई पास नहीं मेरा मन बेकल है ..मेरा एक सवाल है क्या है कोई मसीहा उनके लिए भी मुअय्यिन या ईश्वर के लिए भी इनकी ज़ात बेकार है ? मर जाएंगे क्या ये यूँही एक एक करके और पैदा होंगे अगले जन्म में फिर से कीड़े मौकौड़े बनके? क्या फिर से पांच दिन की भूख से तड़पता अपने बच्चों को देख कोई बेकस माँ उठा के उन्हें बहती नदी में देगी फेंक हम जब अपने घरों में बैठ के सूकून से बोर हो रहे हैं कुछ लोग हैं जो ज़िंदा रह भर सकें इसकी कोशिश में उलझे हुए हैं 14/4/20
Shabana Nafees
आज़माइश के इस दौर को , बेहतर होगा ज़ब्त के साथ गुज़ार दिया जाए ग़म हम उठा लेते हैं सब्र तुम कर लो, हिसाब मिलके तय कर लिया जाए 17/4/20
Shabana Nafees
आग जो सूरज में थी पिघल के सब बर्फ़ चाँद की बन गयी गुज़रना मरहलों से ऐसा हुआ तासीर ज़िन्दगी की बदल गयी 4/7/20
Shabana Nafees
बढ़ चुकी हैं जो जानिब ए मंज़िल उन राहों को याद छूटा हुआ चौराहा करता है बस गए परदेस में जो एक मुद्दत से उन लड़कों को याद गली का नुक्कड़ अब भी करता है 4/7/20
Shabana Nafees
ये चराग़ जो बुझ रहें हैं सहर तक उन्हें जलाये रखना होगा कि इस अमावस में अब उम्मीदों पे हि रोशनी का फ़रीज़ा है 20/4/21
Shabana Nafees
जितना चाहे दिखा ले ज़ोर ओ आज़माइश आदम ज़ात क़ुदरत हिसाब लेती है एक रोज़ फिर एक साथ 3/4/20
Shabana Nafees
उसके दूर होने पे जो एक शख़्स मुझे कभी अज़ीज़ था पता चला मैं किस क़दर ग़लतफ़हमियों का मरीज़ था 6/4/20