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SURAJ आफताबी
गर कभी श्वाँसों की गति मेरी अवरुद्ध होगी देह मेरी जर्जर व काशीवास की ओर लुब्ध होगी तुम सारे आबंध खोल, सारे उपालंभ समय के पीछे छोड़ गोद में रख सर मेरा अंतिम बार फिरसे मस्तक सहलाओगी ना मैं रोक लूँगा नजरों को तेरे रस्ते में मगर बताओ आओगी ना जब सूरज की किरणें मेरे प्राणों से क्षुब्ध होगी मृगांक की ज्योत्सना भी मेरी विदाई पर अत्यंत मुग्ध होगी मेरे सारे प्रणय आँसूओं में भर, स्वयं के प्रण सारे मोम-से पिघला कर गीत वही पुराना अपने होंठों से गा अंतिम बार फिरसे सुलाओगी ना मैं रोक लूँगा मँद साँसों को तेरे सदके में मगर बताओ आओगी ना अंत में जब अक्रिय देह पंडित-पुरोहितों के मंत्रों से शुद्ध होगी पंचतत्व होंगे माटी में विलीन और आत्मा स्वयं बुद्ध होगी तुम तोड़ अपना मौन इक अंतिम बार फिरसे "आफताब" बुलाओगी ना मैं मुस्काते हुये तुम्हारे स्पर्श से हो जाऊँगा विदा मगर बताओ आओगी ना बताओ आओगी ना कविता..🙏🙏 काशीवास- मृत्यु लुब्ध- आसक्त, आकर्षित या मोहित आबंध - गाँठ उपालंभ- गिले-शिकवे
दर्शन ठाकुर
मैंने सफल लोगों से ज़माने को जोड़ते देखा संबंध है। खैर ऐसा करने को किसने उन पर लगाया प्रतिबंध है? एक बात है जिसको लेकर मन में चलता रहता द्वंद्व है। क्या सफलता असफलता ही तय करती हमारे आबंध है? 🤔🤔🤔 मैंने सफल लोगों से ज़माने को जोड़ते देखा संबंध है। खैर ऐसा करने को किसने उन पर लगाया प्रतिबंध है? एक बात है जिसको लेकर मन में चलता रहत