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Arpit shukla
Rajesh Kumar
चिट्ठियाँ लिक्खीं हवा में डाल दीं बे-पता थीं उनका जो होता, हुआ। #वृक्ष_के_पत्र
राघव_रमण (R.J)..
वृक्ष की सेवा करें सब नित लगायें नव तरू खुद के जीवन को सजायें और बचायें आबरू हर तरफ फैला प्रदुषण छा गया है अंधकार सुकुन मिलता है सभी को और बढ़ जाता है प्यार।। हम सभी कदम बढ़ायें मिलकर करें एक प्रयत्न शुरूआत खुद से करें हम फिर करें सबको संलग्न भविष्य के भारत को बचायें कर रहा राघव गोहार सुकुन मिलता है सभी को और बढ जाता है प्यार।। ©राघव रमण 15/11/19 #वृक्ष_लगायें_वृक्ष_बचायें
Geeta Sharma pranay
क्यों तुने अपने आप को हमसे अलग समझ लिया। जो तू हैं, वही हम हैं। जो तेरा हैं वो मेरा हैं और जो मेरा है वो तेरा हैं। एक ही तो वृक्ष की शाखाएँ हैं , हाँ आज कुछ शाखाओं में फल ज्यादा प्राप्त हो रहा हो। और कुछ में कम। पर हिस्सा तो उसी का तू भी हैं और मैं भी हूँ। शायद वृक्ष की उम्र कम हो जाती हैं। पर जड़ से तो मजबूत रहती हैं। टहनियाँ बनकर बीखर ने से क्या मतलब। ये दुनियाँ तो जग हसाई की है। वो तो चाहती हैं कि हम सब बीखर जाए। 😥😥😥 ©Geeta Sharma pranay #वृक्ष_की_शाखाएँ
Dileep Bhope
दुःख याचे तर आहेच की तोडली त्यांनी कैक झाडे उध्वस्त झाले पाखरांचे निवारे दुःख याचेच पण अधिक आहे काय होईल उद्याचे सांगा जर निसर्ग हा कोपला..? आनंद मानावा कसा आम्ही? हा तर बेगडी विकास झाला! -दिबा https://fb.watch/l83Vkd6i_i/?mibextid=Nif5oz ©Dileep Bhope #वृक्षबचाओ
Tara Chandra
वृक्ष का जीवन: धरती के नीचे कुछ दिन तक, दबे बीज का दम निकला, चीर के छाती मिट्टी का, ऊपर निकला कोमल पौंधा।। केवल एक थी कोंपल उसकी, जब वो था आज़ाद हुवा, दिन बीते देखते-देखते, विशाल वृक्ष बन खड़ा हुवा।। हट्टा-कट्टा कद कांठी ले, आसमान की ओर बढ़ा, याद रहा प्रारम्भ की घुटन, वो संसार में 'सन्त' बना। कुछ जीवों ने पल्लव खाये, फल पक्षी-मानव पाये, सतत ही बांटे प्राणवायु, वायु जहरीली पी जाए।। लक्ष्य बनाया प्रतिपल सेवा, जो कुछ भी पाया बांटा, अन्त समय भी निज शरीर को, मानव को ही सोंप गया।। जीते जी घर बना, खगों के, कितनी पीढ़ी पाल गया, मानव के सिर पर छत हो, वो भौतिक आधार बना।। यही सन्त का जीवन है, जो है पाया, बाँट चलो, पत्थर भी कोई दे मारे, मीठे फल ही भेंट करो।। ©Tara Chandra #वृक्ष_सन्त
Samadhan Navale
असतील हीने पाहिली कीतीतरी उन्हे उन्हाचे चटके तसेच पौर्णिमेचे चांदणे, चटक्यात उन्हाच्या भाजत असतील अंग तर कधी शित दवाने.. केले असतील गोड स्वप्न भंग, श्रावणात निसर्गाने नेसविला असेल हिरवा शालू आनंदाने तेव्हा ही धुत असेल रोज अंग, म्हणुनच तेव्हा ही दीसायची खुलून जशी चंचल नववधूच... पण अरे ! हे काय आता झालंय तिला ? द्रोपदीला विवस्त्र केल्यागत ही भग्न का? श्रावणात नेसलेला शालू कुठे आहे? वाटतं उन्हाळ्याने हिरावला असावा, बघवला नसेल त्याला, आनंद तो तिचा तरीही चेहरा तिचा मात्र,जराही सुखला नाही, अजूनही ती वाऱ्याला प्रतिसाद देतच आहे अजूनही तीला श्रावणाची आस आहे खरं तर,थकलेल्यांना सावली द्यायची कास आहे, हीच इच्छा जगण्याची, हाच तिचा ध्यास आहे. खूपच कष्ट करतेय ती सहन.. नाही तरीही वेदनेचा हुंकार नाही त्यागाची व्यर्थ ललकार, सांगतही नाही दुःख कुणाला कुणाला? आहे हाच तिचा प्रश्न, 'त्याला'..ज्याने स्वार्थासाठी स्वत:च्या छाटले जिचे अंग प्रत्यंग, सुंदर काया जीची,केली ज्याने भंग, उपदेश करत बसण्यापेक्षा जीने दुनियेसाठी स्वत: आदर्श होऊन बसणे पसंत केलं.. अशी ही वृक्षलता ! ©Samadhan Navale #वृक्षलता