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Prem Nirala

निरंतर हो रही प्रेम की पीड़ाएं क्षणिक खत्म कहाँ होती हैं, खत्म होती हैं, तो उनकी आशाएँ और आकांक्षाएं, जो रह रह कर ये आभास दिलाती हैं, कि मृत #prem_nirala_

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निरंतर हो रही प्रेम की पीड़ाएं क्षणिक खत्म कहाँ होती हैं,
खत्म होती हैं, तो उनकी आशाएँ और आकांक्षाएं,
जो रह रह कर ये आभास दिलाती हैं, कि मृत्यु निकट हैं,
और दर्द वैसे ही जैसे एक पिली पकी टिसटिसाती घाव!

prem_nirala_ निरंतर हो रही प्रेम की पीड़ाएं क्षणिक खत्म कहाँ होती हैं,
खत्म होती हैं, तो उनकी आशाएँ और आकांक्षाएं,
जो रह रह कर ये आभास दिलाती हैं, कि मृत

Prem Nirala

कविताएँ वो नहीं, जो कही और सुनी जाती हैं, "कविताएँ वो! जो ढलती साँझ के अंधेरों में, नींद से भरी कई दिनों की थकी ऊँघती आँखों के कोरों से बहते #prem_nirala_

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कविताएँ वो नहीं, जो कही और सुनी जाती हैं, "कविताएँ वो! जो ढलती साँझ के अंधेरों में, नींद से भरी कई दिनों की थकी ऊँघती आँखों के कोरों से बहते निर्झर अश्रु की विरही में लिखी जाती हैं!

"कविताएँ वो! जो अपने बदन पे एक छोटी टिसटीसाती घाव नाम मात्र की, लेकिन दर्द वैसे ही जैसे कोई प्रसव पीड़ा में बैठा हो, और उस वक़्त लग रहा हो, कि जिसकी यादों में ये विरही कविताएँ लिखी जा रही हैं, वो मेरे सिराहने बैठकर, तपती बुख़ार से मेरे माथे को अपने होठों से तब तक चूमते रहे, जब तक ये विरही कविताओं को न लिखने की डाँट उसी तरह से दे, जिस तरह से हम बचपन में मिट्टी खाया करते थे, और माँ डाँटा करती थी!

कविताएँ विरह में लिखनी ही क्यूँ पड़ती हैं, अगर कविताएँ विरह में लिखी ही न जाए, ठीक वैसे ही जैसे एक बच्चे के लिए माँ का आजीवन प्यार, ठीक वैसे ही जैसे घर से निकाले जाने के बाद भी एक बूढ़ी माँ का, तब भी, अपने उस बच्चे के लिए आँचल में छुपा हुआ शाश्वत प्यार!

और फ़िर कविताएँ इसलिए भी विरह में लिखी जाती हैं, क्यूँ कि सारे प्यार बदलते कमरे की बंद किवाड़ो में दम नहीं तोड़ी हैं, आज भी कुछ प्यार ऐसा हैं, जो बंद पड़ी दरवाज़े के ऊपर लगी सिकड़ियो के खुलने का इंतज़ार देखती हैं!

prem_nirala_ कविताएँ वो नहीं, जो कही और सुनी जाती हैं, "कविताएँ वो! जो ढलती साँझ के अंधेरों में, नींद से भरी कई दिनों की थकी ऊँघती आँखों के कोरों से बहते

Yogender

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