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Shashi Bhushan Mishra
शोर भरी सड़कें शहरों की बुला रहा अब गाँव, किसको याद रखोगे तपती धूप या कि फिर छाँव, संस्कार से बंधकर चलते यहाँ मधुर संबंध, नमस्कार से काम न चलता छूने पड़ते पाँव, अपनापन का मेल अनोखा दिखलाते सब लोग, खुले हृदय से मिलते सारे कोई न चलता दाँव, सुबह सवेरे चहल-पहल से मन को मिले सुकून, चिड़िया करती कलरव छतपर कौआ बोले काँव, कबतक रहूँ भटकता गुंजन आश्रय की दरकार, चलो बनाएँ रहबर उसको मिले जहाँ पर ठाँव, ---शशि भूषण मिश्र 'गुंजन' पांडिचेरी ©Shashi Bhushan Mishra #मिले जहाँ पर ठाँव#
MAHENDRA SINGH PRAKHAR
उछल-उछल गोरी चले , पहने पायल पाँव । छम-छम करती पायलें , घायल सारा गाँव ।। आज सभी को है मिला , द्वार उसी का ठाँव । ठुमक-ठुमक कर वो चले , बजती पायल पाँव ।। एक वही घर गाँव में , सबसे ऊँचा दुर्ग । कायल पायल के हुए , बच्चे और बुजुर्ग ।। महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR उछल-उछल गोरी चले , पहने पायल पाँव । छम-छम करती पायलें , घायल सारा गाँव ।। आज सभी को है मिला , द्वार उसी का ठाँव । ठुमक-ठुमक कर वो चले ,
राजकिशोर मिश्र राज
Satya Prakash Upadhyay
किसी रोज़ छॉंव की तलाश में लगेंगी कतारें पाने को छांव,उमड़ पड़ेंगे गाँव के गाँव न बचेगी प्राकृतिक सुंदरता शीतलता मिलेगी बस एक हीं ठाँव गरीबों में होगी प्रतियोगिता सेठ लगाएँगे और ऊँचे भाव वृद्ध बीमार को न होगी प्राथमिकता जाओ भले तुम मर हीं जाव शक्तिशाली का ज़ोर चलेगा कमजोर बस पटकेंगे पाँव बच्चों का विकास न होगा मानवता की कैसे पार होगी नाव अब भी समय है सुधार करें हम न लगाएं पकृति पर गहरे घाव प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का प्रयास करने सब मिल आओ लगेंगी कतारें पाने को छांव,उमड़ पड़ेंगे गाँव के गाँव न बचेगी प्राकृतिक सुंदरता शीतलता मिलेगी बस एक हीं ठाँव गरीबों में होगी प्रतियोगिता सेठ ल
Anita Saini
खेलणै किस्मत रा दाँव बचपण री बेफ़िक्री छोड़ क हाथ निकल ज्या द ब पाँव घर परिवार कै खातर छोड़ नु पड़ै प्यारो गाँव ब ताल तलया री ठाँव बा बूढ़ा बरगद री छाँव सुका कुआ खेत खळिहाण उजड्यो उजड्यो लागै गाँव चीकणी च्यौड़ी सडकाँ प डोळ डोळ क छिळज्याव कोमल पाँव पेट छुड़ावै गाँव खेलणै किस्मत का दाँव बचपण री बेफ़िक्री छुड़ा क हाथ निकल ज्या द ब पाँव घर परिवार कै खातर छोड़ नु पड़ै प्यारो गाँव ब ताल तलया री
Sweta
_ वो खूबसूरत शाम उन पेड़ों की छाँव नदियाँ किनारे कितना खूबसूरत था एक गाँव वो लहलहाते खेत वो कितनी हरियाली ऐसा लगता था जैसे प्रकृति ने पसारे हो पाँव अपने लालच ,शानो-शौकत में हमने खो दी Queen" उस मनोहर प्रकृति की ठाँव आज प्रकृति क्रोध में दिखा रही ताँव काश,हमनें बचाया होता न आने दिया होता धाँव !!! पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ आप सभी को 💐💐🙏😊 ताँव-गुस्सा ,,,ठाँव-जगह ♥️ Challenge-590 #collabwithकोराकाग़ज़ ♥️ इस पोस्ट को हाईलाइट क
रजनीश "स्वच्छंद"
भाव पढ़ता हूँ।। दर्द लिखकर तेरा मैं भाव पढ़ता हूँ, अहं की दीवार पर मैं घाव करता हूँ।। सुकूँ खुशियों में मिला सबको यहां, ग़मों की धूप में भी मैं छांव करता हूँ। दिए की एक लौ सी है कविता मेरी, दबी चिंगारी को भी अलाव करता हूँ। शब्दों की अविरल धार है ये लेखनी, तिनके को भी एक मैं नाव करता हूँ। जो बिखरे हैं जो टूटे हैं इस ज़माने में, हर उस दिल मे जा मैं ठाँव करता हूँ। अधिकारों के जंग में लेखनी तलवार थी, अपने सर हर योद्धा का पांव करता हूँ। कौन मेरा कौन तेरा, कौन पराया सगा, अपने मन को ही मैं पूरा गांव करता हूँ। शब्द हैँ क्लिष्ट नहीं भाव पर गम्भीर हैं, कह बात अपनी यहीं पड़ाव करता हूँ। ©रजनीश "स्वछंद" भाव पढ़ता हूँ।। दर्द लिखकर तेरा मैं भाव पढ़ता हूँ, अहं की दीवार पर मैं घाव करता हूँ।। सुकूँ खुशियों में मिला सबको यहां, ग़मों की धूप में भी म
रजनीश "स्वच्छंद"
स्वातंत्र्य भाव वर्णन।। ये शीश तर्पित आज है, ये वीर वर्णित आज है। कण कण लहु में ज्वार है, ये काव्य छन्दित आज है। कम्पित नहीं हुंकार है, वाणी में भी ललकार है। कोटि कोटि स्वजनों में, आह्लादित ये जयकार है। ये भाव स्तंभित आज है, ये जग अचंभित आज है। जो पूत तेरे बढ़ चले, सृष्टि भी कम्पित आज है। ये धीर अंगद पांव है, रौद्र मन का ही ठाँव है। हम अडिग जो हैं खड़े, मातृ आँचल की छांव है। वो वीर जो सरहद डटे, हैं धूप बारीश जो खड़े। उनको नमन पभु आज है, जो देश ख़ातिर है लड़े। स्वातंत्र्य वेदी है ये पावन, है गूंजता जो मुक्त गायन। खग विहग तरु ताल नदियां, हैं झूमते मानो हो सावन। स्वरचित जन भाव संचित, दारिद्र्य-रहित, न कोई वंचित। मुक्ति स्वर नभ में जो गूंजा, पुनः हुआ ये प्रण स्पंदित। ये दृष्टि लक्षित आज है, ये सार गर्भित आज है। ये शीश तर्पित आज है, ये वीर वर्णित आज है।। ©रजनीश "स्वछंद" स्वातंत्र्य भाव वर्णन।। ये शीश तर्पित आज है, ये वीर वर्णित आज है। कण कण लहु में ज्वार है, ये काव्य छन्दित आज है। कम्पित नहीं हुंकार है,
Naveen "Nirjhar"
सुनो आज तुम कुछ कह दो। मुझको सुनकर थोड़ा सा तुम हँस दो।। थोड़ा सा में तुमको गुन लूँ। तुमको आँखों से में अपनी सुन लूँ।। छोटी सी कंचन सी काया। सरल दिव्य सा रूप समाया।। देख जिसे में हँसता अक्सर । तुममें मेने न जाने क्या पाया खोकर।। यूँ तो तुम इक इंसान महज हो। थोड़ी चंचल शांत सहज हो।। कभी बरसती मेघ सी यूँ ही। खलती तेरी चुप्पी यूँ ही।। एल पल हँसनि शिशु के जैसे। पसंद करूँ बोलो मौन तुम्हारा में कैसे।। चुप होती हो लगता एक पल। मन मे उठती अनजानी हलचल।। तुमको खोने से डरता हूँ। सुनो जरा में सच कहता हूँ।। तुम धड़कनों की लौटती आवाज सी।। सांसों का तुम सुखद साज हो।। मरुथल में तरू सी छाँव हो। मन रमता जिसमे वो ठाँव हो।। तुमसे नेह सदा रहेगा। अंतर्मन ये दुआ करेगा।। ऐसे ही तुम हँसती रहना; सदा हँसाते रहना में। दूर कहीं मत जाना मुझसे ;इतना सा बस कहना में।। खुशियों का मेरा एहसास हो । तुम जो भी हो जैसी भी हो ;; सच तुम बहुत ख़ास हो। सच तुम बहुत खास हो।। नवीन "निर्झर" Read my thoughts on YourQuote app at https://www.yourquote.in/naveen-tejsavi-bxr37/quotes/suno-aaj-tum-kuch-kh-do-mujhko-sunkr-thodddhaa-saa-tum-hns-n-bmiluc सुनो आज तुम कुछ कह दो। मुझको सुनकर थोड़ा सा तुम हँस दो।। थोड़ा सा में तुमको गुन लूँ। तुमको आँखों से में अपनी सुन लूँ।। छोटी सी कंचन सी काया।
MAHENDRA SINGH PRAKHAR
मनहरण घनाक्षरी :- काँव-काँव लड़ रहे , हल न निकल रहे , जनता की पीर लिए , नेता परेशान है । नित यही भाषण हो , फिर भी तो शोषण हो , कहतें है डरो नही , अनुसंधान है । आज सत्तर साल में , बिजली पानी गाँव में , देते आए नेता सब , जनता हैरान है । आया फिर चुनाव है , खोजत नेता ठाँव है , जनता भी पूछे अब , कैसा मतदान है ।।१ बोलते डालर उठा, पैसा क्यों है नीचे गिरा , बोरो में भरकर वे , करते सवाल है । धंधा खूब चल रहा , मजदूर नित मर रहा , रोता है किसान अब , कहते बवाल है । किसानो के हितकारी ,देखो सब सत्ताधरी, फिर भी उसका हक , करे इस्तेमाल है । आज नही पास कोई , पूछे नही हाल कोई, बच्चे भूखे सब अब , घर में न दाल है ।।२ श्रामिक किसान सभी , देखे नही घर कभी , हल जोठ कस्सी लिए , बैठे धूप छाँव में । शहर न जाए कभी , सूखी रोटी खाए सभी, रहे परिवार संग , अपने ही गाँव में । करोगे मदद थोड़ी , दोगे बैल एक जोड़ी , औ अपने आनाज का , स्वयं करुँ भाव में । अन्नदाता नाम नही , झूठे दो मुकाम नही , मैं भी अब खड़ा रहूँ , चाहूँ ऐसे पाव में ।।३ १७/०८ २०२३ - महेन्द्र सिंह प्रखर ©MAHENDRA SINGH PRAKHAR काँव-काँव लड़ रहे , हल न निकल रहे , जनता की पीर लिए , नेता परेशान है । नित यही भाषण हो , फिर भी तो शोषण हो , कहतें है डरो नही , अनुसंधान है ।