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Parasram Arora
थोड़ी उम्र क्या बड़ी उस श्वान की कि बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा उसे जहां मिलती थीं डूबी हुई डबल रोटी रोज. अब सूखी रोटी कमज़ोर हो चुके दांतो से चबाकर गुज़ारना पड़ता था अप.ना दिन उसे और वो मालिक ज़ो पहले छिड़कता था जान उस पर और देता था दुलार उसे अब वो भी उससे दूरी बना रहा था और मुँह बिचकाता था देख कर उसे l इसलिए अब सूखी रोटी क़े लिए भी पूँछ ज्यादा हिलानी पडती थीं उसे क्योंकि अब सारी सुविधाओं से वँचित कर दिया गया था उसे और जिन कुत्तों पर भौक कर छाती उसकी फूल जाती थीं पहले अब कोई भी दूसरी.गली का अजनबी कुत्ताआकर गुर्रा कर डरा जाता था उसे . अब वो समझ चुका था ये हकीकत कि समय आ चुका है उसके निर्वाण क़े लिए और शीग्र ही छोड़नी पड़ेगी ये नश्वर काया.उसे ©Parasram Arora निर्वाण......
Parasram Arora
संसार है तो निर्वाण भी वहा होगा ही कोई निर्वाण को आध्यात्मिक तल पर तलाश करता है कोई इसे अपनी भेड़ों को हरे भरे मैदानों मे घास चराने मे ढूंढ लेता है कोई इसे अपने बच्चोँ को बिस्तर मे लोरी सुनाते सुनाते पा लेता है और कोई इस निर्वाण को अपनी कविता की अंतिम पंक्ति क़े लिए किसी नए छंद की तलाश मे ही पा कर धन्य हो जाता है ©Parasram Arora निर्वाण......
Parasram Arora
न कही पंहुचना है न कहीं कोई पहुंचने की जल्दी है इसीलिए न कोई आकुलता है न कोई व्याकुलता है और न ही कोई आपधापी है "खड़ा विश्व क़े चौराहे पर अपने मे ही सहज लीन हूँ मुक्त दृष्टि निरुपाधी निरंजन मैं विमुक्त भी उदासीन हूँ" तब हम विश्व क़े चौराहे पर खडे खडे भी निर्वाण मे लीन्. हो सकते है तब बाजार मे खडे खडे भी मोक्ष को अपने नज़दीक पा सकते हैँ ©Parasram Arora मोक्ष निर्वाण......