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Ravendra
Ravendra
Divyanshu Pathak
मैं तो दे आया तुम भी दे आओ..... अपने देश की अपने मन की सरकार बनाओ ! जागो भाग्य विधाता! : समय के प्रवाह को कोई नहीं रोक पाया। विधि के विधान को रावण भी नहीं बदल पाया। कितना बड़ा सत्य दे गया विश्व को-‘भ्रष्टाचा
Rishika Srivastava "Rishnit"
#AzaadKalakaar #AzaadKalakaar स्त्री विमर्श क्यो?? स्त्री विमर्श वास्तव में एक जटिल प्रश्न बनकर युगांतर से मन को गुदगुदा ता आ रहा है यद्यपि नारी की उपस्थिति तो साहित्य की हर विद्याओं में किसी न किसी रूप में सदा से रहती ही आ रही है तब फिर इसी औचित्यता पर प्रश्नचिन्ह क्यों अंकित होता रहा है? हमारा देश आज़ाद हो चुका है फिर भी स्त्री की दशा आज भी दयनीय क्यों?? स्त्री विमर्श के विषय में एक प्रश्न और विचारणीय है कि क्या स्त्री द्वारा लिखित साहित्य स्त्रीवादी साहित्य होता है मेरे विचार से स्त्री या पुरुष के लेखन का नहीं है बस है स्त्री विमर्श पर कदम उठाने वाला या कलम उठाने वाली स्त्री स्वभाव का स्त्री समस्याओं की गहराई से परिचित है या नहीं स्त्री की पीड़ा उस पर हो रहे अत्याचार उत्पीड़न शोषण की कसक आदि को कभी मानसिक या वैचारिक रूप से भोगा है या नहीं। वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति संतोषजनक थी। समाज में स्त्री पुरुष दोनों समान रूप से सम्मानजनक जीवन जीने के अधिकारी थे। पुत्र या पुत्री के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं था। सामाजिक, आर्थिक शैक्षिक तथा धार्मिक कार्यों में दोनों की समान भागीदारी थी। पुत्र या पुत्री के पालन पोषण में भी कोई अंतर नहीं माना जाता था ।इस युग की सबसे बड़ी उपलब्धि थी के पुत्र की शिक्षा के साथ-साथ पुत्रियों तथा स्त्रियों की शिक्षा पर भी गंभीरता पूर्वक ध्यान दिया जाता था। परिणाम स्वरूप लोपामुद्रा, विश्ववारा, घोषा, सिक्त निवावरी जैसी कवि तथा मंत्र और सुक्तों के प्रसिद्ध रचयिता इसी युग की देन है । इसी युग में हुई स्त्री विकास के मार्ग में बाधक जैसे परंपरा नहीं थी। स्त्रियों को इच्छा अनुसार जीवन जीने की स्वतंत्रता प्राप्त थी। वैदिक काल और परिस्थितियों मैं शनै शनै परिवर्तन होने जैसा प्रतीत होने लगा यद्यपि पुत्री की शिक्षा-दीक्षा पूर्व चलती रहे तभी समाज की मानसिकता बदल गई। कालांतर में पुत्री भी स्वयं को पुत्र की तुलना में ही समझने लगी। चुकी इस युग में पर्दा प्रथा की चर्चा तो नहीं है। फिर भी नहीं रह गई सार्वजनिक सभा तथा धार्मिक अनुष्ठान में अपनी भागीदारी निभाने से वंचित होने लगी पुत्री का विवाह कम आयु में करने का विवाद चल पड़ा पुत्र-पुत्रियों के जन्म पर भी भेदभाव होने लगा। पुत्र का जन्म उत्सव मनाया जाने लगा लेकिन पुत्री के जन्म को अभिशाप समझा जाने लगा। पुत्रियों को वेदाध्ययन के अधिकार से बातचीत होना पड़ा। महाभारत में द्रोपदी के के लिए "पंडित" शब्द का विशेषण आया।ऐसी पंडिता जो माँ कुंती के आदेश के पाँच पतियों में बँटकर जीवन व्यतीत करने के लिए विवश हो जाती है। कुंती जो विशिष्ट आदर्श कन्याओं में गिनी जाती है समाज के भय से सूरज को समर्पित अपनी को कोम्यता के फलस्वरूप प्राप्त पुत्र रत्न को नदी में प्रवाहित करने हेतु विवश हो जाती है. सती साध्वी राज कुलोधभूता सीता एक साधारण पुरुष के कहने पर अपने पति श्री राम द्वारा परित्यक्ता वन अकारण वनवास के दुःख झेलती है।विचारणीय है यदि उस समय की सधी और मर्यादाओं से बंधी राजकन्या हो कि यदि ऐसी स्थिति की सामान्य स्त्रियों की दशा कैसी रही होगी. चुकी इस काल में स्त्रियों को आर्थिक दृष्टि से पर्याप्त अधिकार प्राप्त है। माता-पिता आदि से प्राप्त धन स्त्री धन था ही विवोहरान्त या विवाह के समय पर आप उपहारों पर भी स्त्रियों का अधिकार था किंतु मनु विधान के अनुसार वह उसकी संपूर्ण स्वामिनी नहीं थीं। पति का अनुमति के बिना उसका एक पल भी उपयोग नहीं कर सकती थी। खैर जैसा था- था लेकिन वर्तमान परिपेक्ष में भी हम देखते हैं कि आज भी पुरुषों की मानसिकता यथावत है। मुगल शासनकाल में चल रहे भक्ति आंदोलन के फल स्वरुप स्त्रियों को सामाजिक तथा धार्मिक स्वतंत्रता मिली फलता बदलाव का बीज अंकुरित होने लगा। 【आगे अनुशीर्षक में पढ़े】 ©rishika khushi ब्रिटिश शासन काल में स्त्रियों की परिस्थितियों के कुछ सुधार आया, क्योंकि शिक्षा का विस्तार किया गया। लड़कियों की शिक्षा में ईसाई मिशनरियाँ र
Ravendra
Chandan Kumar
----------- # I .a.s के लिये कोचिंग को लेकर जिन छात्रों के ह्रदय में भ्रम पल रहा हैं - की करें या ना करें - वो इस लेख को ज़रूर पढ़े - # .. सि
Vikrant Rajliwal
🙏💖💖.. .✍️🎙️ मेरे यूट्यूब चैनल Kavi, Shayar & Natakakar एव अन्य सोशल अकाउंट्स के लिए मेरी नई प्रोफाइल इमेज। I hope you like it.❤️ Click th
Ek villain
मलयालम फिल्म की एक निर्देशक हैं उर्दू गोपाल कृष्ण मलालायम की में नई तरह की फिल्म बनाने को लेकर उनके क्या आती रही है कई राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं पदम श्री और पद्म विभूषण से सम्मानित देश-विदेश की फिल्म से जुड़ी संस्थाओं से किसी ना किसी रूप से जुड़े रहे इंटरनेट मीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार आपातकाल 1975 के दौर में पुणे में कैदी फिल्म टेलीविजन संस्थान के निदेशक रह चुके हैं फिल्म से जुड़ी संस्थाओं में भी रहे हैं यह सब बताने का आशय यह है कि अदूर गोपालकृष्णन की फिल्म से जुड़ी संस्थाओं का लंबा अनुभव है ऐसे में कई बार होता है कि अनुभव की था 30 को लेकर चल रही थी समय के साथ आने वाले बदलाव की आहट नहीं पाता अदूर गोपालकृष्णन के साथ भी यही होता प्रतीत हो रहा है इन दिनों में सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अलग-अलग विभागों के पुनर्गठन के फैसले की आलोचना कर रहे हैं उन्हें लगता है कि केंद्र सरकार का यह फैसला अनुचित है उनका मानना है कि इन संस्थाओं को वर्तमान स्वरूप में ही काम करने दिया जाए जब वह इस तरह की बात करते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि बदलते हुए समय को पहचाना नहीं पा रहे हैं मनोरंजन की दुनिया यह उसके प्रशासन से जुड़े तौर-तरीके अब नहीं रहे उदाहरण पहले हुआ करते थे उदाहरण महामारी के बाद मनोरंजन की दुनिया बदल चुकी है सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत फिल्म से संबंधित कई भाग हैं जिनका गठन उदारीकरण के दौर में हुआ था फिल्म विभाग बाल चरित्र चिल्ड्रन फिल्म सोसायटी और राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के गठन के समय की मांग के अनुसार इन विभागों के दायित्व किए गए थे ©Ek villain #संस्थाओं में सुधार समय की मांग #Love
Ek villain
कॉलेज ड्रेस कोड से संबंधित एक मुद्दे ने कर्नाटक के बाकी हिस्सों में भी विवाद को जन्म दे दिया है तमाम अराजक तत्व धार्मिक परिंदे और विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा इस सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की गई और हिंसा में आग आदि की घटनाओं को अंजाम दिया गया संबंधित घटनाओं की बढ़ती गंभीरता और से जुड़े हिंसा को देखते हैं कर्नाटक सरकार द्वारा 3 दिन की आवश्यकता की घोषणा कर दी गई हम इस पर पूरी बहस के सामने आने वाली भटगांव से बचाते तीन महत्वपूर्ण पहलू पर ध्यान देना चाहिए पहला यह कि मामले तो धरने के बीच का नहीं है बल्कि धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा और धार्मिक मान्यताओं के बीच का है जिसे वर्तमान परिस्थिति में संविधान की दृष्टि से देखा ना होगा दूसरा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का है तीसरा मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा पर प्रभाव धार्मिक व्यवस्था पर राजनीतिक तंत्र व्यवस्था स्थापित किया गया था आगे चलकर पॉप या खलीफा के नेता वाली में 2 योगिनी धार्मिक सप्ताह के तहत चलने वाली राज्य व्यवस्था की जगह पर आंशिक क्रांति के सिद्धांतों पर आधारित लोकतंत्र ने लिया तो इस बात पर बल दिया गया है कि किसी भी धर्म या संप्रदाय से जुड़े लोगों को दबाया नहीं जाना चाहिए अगर यूरोपीय इतिहास को ही देखे तो धर्म और राज्य को लेकर वह अलग अलग प्रयोग भी किए गए हैं जहां कई राज्यों में विवाद पहुंचे और धर्म को महत्व दिया गया है ©Ek villain #शिक्षा संस्थाओं में ड्रेस कोड का मामला #promiseday