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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

आविः सन्निहितं गुहाचरं नाम महत् पदमत्रैतत्‌ समर्पितम्‌।
एजत् प्राणन्निमिषच्च यदेतज्जानथ सदस-द्वरेण्यं परं विज्ञानाद्यद्वरिष्ठं प्रजानाम्‌ ॥

स्वयं आविर्भूत परम तत्त्व यहाँ सन्निहित है, यह हृद्गुहा में विचरने वाला महान् पद है, इसमें ही यह सब समर्पित है जो गतिमान् है, प्राणवान् है तथा जो दृष्टिमान् है। यह जो यही महान् पद है, उसको ही 'सत्' तथा 'असत्' जानो, जो परम वरेण्य है, महत्तम एवं 'सर्वोच्च' (वरिष्ठ) है, तथा जो प्राणियों (प्रजाओं) के ज्ञान से परे है।

Manifested, it is here set close within, moving in the secret heart, this is the mighty foundation and into it is consigned all that moves and breathes and sees. This that is that great foundation here, know, as the Is and Is not, the supremely desirable, greatest and the Most High, beyond the knowledge of creatures.

मुंडकोपनिषद २.२.१ #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद्

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

यस्मिन्‌ द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षमोतं मनः सह प्राणैश्च सर्वैः।
तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथामृतस्यैष सेतुः ॥

'वह', जिसमें द्युलोक, पृथ्वी एवं अन्तरिक्ष, मन तथा प्राण की समस्त गलियां अन्तर्भूत हैं, ओत-प्रोत हैं, 'उसको' तुम एकमेव 'आत्मरूप' जानो; इससे भिन्न अन्य वचनों का सर्वथा त्याग कर दो, यही है अमृत का सेतु।

He in whom are inwoven heaven and earth and the midregion, and mind with all the life currents, Him know to be the one Self; other words put away from you: this is the bridge to immortality.

( मुंडकोपनिषद २.२.५ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्‌ परतः परः ॥

वह दिव्य अमूर्त 'पुरुष', वही बाह्य तथा आन्तर (सत्य) है एवं वह 'अज' है; वह प्राणों से परे (अप्राण) एवं मन से परे (अमन) है, वह शुभ्र ज्योतिर्मय एवं अक्षर से भी परे 'परमात्मतत्त्व' है।

He, the divine, the formless Spirit, even he is the outward and the inward and he the Unborn; he is beyond life, beyond mind, luminous, Supreme beyond the immutable.

( मुंडकोपनिषद १.३.२ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #अमूर्त

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

यः सर्वज्ञः सर्वविद्‌ यस्यैष महिमा भुवि।
दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः ॥

जो 'सर्वज्ञ' है 'सर्वविद्' है जिसकी पृथ्वी पर यह सब महिमा है यह 'आत्मा' ही है जो इस दिव्य ब्रह्मपुरी में, इस व्योम में प्रतिष्ठित है।

The Omniscient, the All-wise, whose is this might and majesty upon the earth, is this self enthroned in the divine city of the Brahman, in his ethereal heaven.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.७ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #गुरु

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

तदेतत्‌ सत्यं मन्त्रेषु कर्माणि कवयो यान्यपश्यंस्तानि त्रेतायां बहुधा संततानि।
तान्याचरथ नियतं सत्यकामा एष वः पन्थाः सुकृतस्य लोके ॥

यह है 'वह' पदार्थों का 'सत्यतत्त्व'ː कवि-द्रष्टाओं ने मन्त्रों१ में जिन कर्म को देखा, वे त्रेतायुग२ में बहुधा विस्तारित हुए। उन कर्मों का एकनिष्ठ होकर 'सत्य' के लिए कामना करते हुए तुम नियमित आचरण करो; पुण्य कर्म-लोक (सुकृत-लोक) के लिए यही तुम्हारा पन्थ है।

This is That, the Truth of things: works which the sages beheld in the Mantras were in the Treta manifoldly extended. Works do ye perform religiously with one passion for the Truth; this is your road to the heaven of good deeds.

( मुंडकोपनिषद १.२.१ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद्  #ज्ञान

वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः संभवन्ति।
यथा सतः पुरुषात्‌ केशलोमानि तथाऽक्षरात्‌ संभवतीह विश्वम्‌ ॥

जिस प्रकार मकड़ी अपने (जाले का) सर्जन करती है तथा उसे अपने में समेट लेती है, जिस प्रकार पृथ्वी पर औषधियाँ उत्पन्न होती हैं, जिस प्रकार जीवित मनुष्य के शरीर के रोम तथा सिर के बाल बढ़ते हैं, उसी प्रकार 'अक्षर तत्त्व' से यही सब कुछ उत्पन्न होता है।

As the spider puts out and gathers in, as herbs spring up upon the earth, as hair of head and body grow from a living man, so here all is born from the Immutable

 ( मुण्डकोपनिषद् १.१.७ ) #मुण्डकोपनिषद् #upnishad #web #spider
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