वेदना
अंत:करण की वेदना....
तीव्र उद्वेलीत उत्छ्रीखंल मन द्रवित आँखें विचलित अंत:करण,
मृग मारीचीका में उलझा मन दैविक प्रण का नीरन्तर चीर हरण
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रजनीश "स्वच्छंद"
नयी सभ्यता।।
चलो फिर से जंगलों, पहाड़ों,
सबको आज़ाद करते हैं।
लुढ़कने दो पत्थरों को,
टकराने दो पत्थरों को,
निकलने दो चिंगारी,
एक आग लगने दो, #Poetry#kavita