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Sandeep A More
नाशिक शहरात भिमवाडीत लागलेल्या भिषण आगीत अनेक कुंटूब उध्वस्त झाली त्या कुटूबांना समर्पित.... #अग्नीकल्लोळ भर दिवसा घडवला काळोख दिसेना झाली वस्ती माझी.. लोट उफाळून तू हसत होता.. चिंध्यांचे तुकडे जोडून उभा केला होता, शिवलेला संसार माझा.. हे संकटा तू असा ज्वाला बनून का आला.. खळगीला आधिच भिकेच गाठोडं बांधून जगायला आता च शिकलो होतो... मुलीच्या लग्नाला तिचा कपाळाला लावायचा कुंकू ही जळाला.. अन स्वप्नांची राख मात्र तू देवून गेला.. मी तर नाही जळालो..पण...माझ्या विश्वातलं ते सुंदर अभयारण्य कोळसा होतांना डोळ्याने पाहिले मी... वस्ती जळत होती माझी अन् मी डोळ्यातील पाण्याची फुंकर मारत राहीलो... ती पेटत राहीली अन मी विझवत राहिलो... विझवता विझवता...मनातल्या हुंदक्यांना दाबत राहिलो.... आता जळून सारी चुल माझी खाक झाली... क्षणात वस्ती माझी राख झाली.. -संदीप मोरे, आशा ट्रेडर्स, अशोका फाउंडेशन, नाशिक #नाशिक
Sandeep A More
नाशिक शहरात भिमवाडीत लागलेल्या भिषण आगीत अनेक कुंटूब उध्वस्त झाली त्या कुटूबांना समर्पित.... #अग्नीकल्लोळ भर दिवसा घडवला काळोख दिसेना झाली वस्ती माझी.. लोट उफाळून तू हसत होता.. चिंध्यांचे तुकडे जोडून उभा केला होता शिवलेला संसार माझा.. हे संकटा तू असा ज्वाला बनून का आला.. खळगीला आधिच भिकेच गाठोडं बांधून जगायला आता च शिकलो होतो... मुलीच्या लग्नाला तिच्या कपाळाला लावायचा कुंकू ही जळाला.. अन स्वप्नांची राख मात्र तू देवून गेला.. मी तर नाही जळालो..पण...माझ्या विश्वातलं ते सुंदर अभयारण्य कोळसा होतांना डोळ्याने पाहिले मी... वस्ती जळत होती माझी अन् मी डोळ्यातील पाण्याची फुंकर मारत राहीलो... ती पेटत राहीली अन मी विझवत राहिलो...विझवता विझवता... मनातल्या हुंदक्यांना दाबत राहिलो.... आता जळून सारी चुल माझी खाक झाली... क्षणात वस्ती माझी राख झाली.. -संदीप मोरे, आशा ट्रेडर्स, अशोका फाउंडेशन, नाशिक #नाशिक #अग्नीकल्लोळ
Vikas Sharma Shivaaya'
Kindly like subscribe and share my you tube channel. https://youtu.be/-Lly0hbfkOs कालिदास बोले :- माते पानी पिला दीजिए बड़ा पुण्य होगा. स्त्री बोली :- बेटा मैं तुम्हें जानती नहीं. अपना परिचय दो। मैं अवश्य पानी पिला दूंगी। कालिदास ने कहा :- मैं पथिक हूँ, कृपया पानी पिला दें। स्त्री बोली :- तुम पथिक कैसे हो सकते हो, पथिक तो केवल दो ही हैं सूर्य व चन्द्रमा, जो कभी रुकते नहीं हमेशा चलते रहते। तुम इनमें से कौन हो सत्य बताओ। कालिदास ने कहा :- मैं मेहमान हूँ, कृपया पानी पिला दें। स्त्री बोली :- तुम मेहमान कैसे हो सकते हो ? संसार में दो ही मेहमान हैं। पहला धन और दूसरा यौवन। इन्हें जाने में समय नहीं लगता। सत्य बताओ कौन हो तुम ? . (अब तक के सारे तर्क से पराजित हताश तो हो ही चुके थे) कालिदास बोले :- मैं सहनशील हूं। अब आप पानी पिला दें। स्त्री ने कहा :- नहीं, सहनशील तो दो ही हैं। पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है, दूसरे पेड़ जिनको पत्थर मारो फिर भी मीठे फल देते हैं। तुम सहनशील नहीं। सच बताओ तुम कौन हो ? (कालिदास लगभग मूर्च्छा की स्थिति में आ गए और तर्क-वितर्क से झल्लाकर बोले) कालिदास बोले :- मैं हठी हूँ । . स्त्री बोली :- फिर असत्य. हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो बार-बार निकल आते हैं। सत्य कहें ब्राह्मण कौन हैं आप ? (पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके थे) कालिदास ने कहा :- फिर तो मैं मूर्ख ही हूँ । . स्त्री ने कहा :- नहीं तुम मूर्ख कैसे हो सकते हो। मूर्ख दो ही हैं। पहला राजा जो बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए ग़लत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है। (कुछ बोल न सकने की स्थिति में कालिदास वृद्धा के पैर पर गिर पड़े और पानी की याचना में गिड़गिड़ाने लगे) वृद्धा ने कहा :- उठो वत्स ! (आवाज़ सुनकर कालिदास ने ऊपर देखा तो साक्षात माता सरस्वती वहां खड़ी थी, कालिदास पुनः नतमस्तक हो गए) माता ने कहा :- शिक्षा से ज्ञान आता है न कि अहंकार । तूने शिक्षा के बल पर प्राप्त मान और प्रतिष्ठा को ही अपनी उपलब्धि मान लिया और अहंकार कर बैठे इसलिए मुझे तुम्हारे चक्षु खोलने के लिए ये स्वांग करना पड़ा। . कालिदास को अपनी गलती समझ में आ गई और भरपेट पानी पीकर वे आगे चल पड़े। शिक्षा :- विद्वत्ता पर कभी घमण्ड न करें, यही घमण्ड विद्वत्ता को नष्ट कर देता है। ©Vikas Sharma Shivaaya' कालिदास #rain
कमलेश मिश्र
*कालिदास* उसी डाल को काट रहे हैं,देखो बैठे कालिदास। जिनसे विश्व लगाए बैठा, है सेवा की पूरी आस। माता पिता बड़ा करते हैं, जिन्हें काटकर अपना पेट। जिनके द्वारा बने हुए हैं, आज पुत्रगण भारी सेठ। उनकी जरा अवस्था में भी,नहीं लगाते उनको पास। उसी डाल को काट-----। जिन्हें पिता ने ऋण लेकर भी,अच्छी शिक्षा दिलवाई। वक्त पड़ा तो भूल गए सब,पीठ उन्होंने दिखलाई। बूढ़े बापू को मिलता है, अपने बच्चों से ही त्रास। उसी डाल को काट-----। मातृ पितृ ऋण चुका न पाए,देवों का आभार नहीं। वे समाज को क्या देंगे,जिन्हें परिवारों से प्यार नहीं। बीवी बच्चों से बढ़कर उन्हें,कुछ भी दिखता नहीं खास। उसी डाल को काट ------। सेवा के हित करें नौकरी, सेवकपन का नाम नहीं। बिन रिश्वत के होता अब, दफ्तर में कोई काम नहीं। मलिक जैसा रौब दिखाते, बतलाते अपने को दास। उसी डाल को काट-----। जनता के सेवक बनकर जो,हाथ जोड़कर मांगें वोट। मालिक बन जाने पर उनके,गद्दों में भी निकलें नोट। अपनी जेबें भरते उनसे, नहीं देश को कोई आस। उसी डाल को काट-----। उसी डाल को काट रहे हैं देखो बैठे कालिदास।। ©कमलेश मिश्र महाकवि कालिदास.....
Roshan Sagar
दोन व्यक्ती यावे एकत्र त्यांचे व्हावे मिलन सार्थक... मिलनातून प्रेमाने बापाने द्यावा गोळा तो चिखलाचा आईने स्वीकारावा तो गोळा पोटात आईने मेहनत करून घडवला त्याचा आकार.. न हात लावता न कुठली मशीन तो फक्त घडवावा विचारांनी अन् मनानी घडवावा त्याचा आकार.... बरेच दिवस लागली ती मूर्ति कारण घडवायला तिला उपमा कशी देता येईल गणपतीची सात दिवस झाले की जा पाण्यात विरघळायला.... तो ना गणपती ना कुठली मूर्ती तीना कुठली जोडता येणार म्हणून सर्वात मोठा 'मूर्तिकार' माझी "आई" असावी. कारण न चुकविला माझा कार तिने कुठे न सोडले छिद्र ना पोकळी. ती मूर्ती द्यावी आईने बाबांना प्रेमाने भेट वस्तू अन् बाबांनी ती प्रेमाने स्वीकारावी हीच माझी ठेवण.... आईने मूर्ती घडवली पण सोबत बाबांनीही तिच्यात विचारांचा भांडार व संस्काराची देवाण-घेवाण केली तर तो माझा सर्वात मोठा "ग्रंथकार". त्या मूर्तीत सतत उजाळा देणारे चुका दुरुस्ती करणारे माझे गुरुवर्य... नाशिक कर